हाल ही में सरकार ने जाति आधारित जनगणना कराने पर सहमति व्यक्त की है। पर वस्तुस्थिति अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाई है कि ये जनगणना पूरी तौर पर जाति आधारित होगी या सिर्फ ओ.बी.सी. की। आश्चर्य है कि एक ओर जनगणना की प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है और दूसरी ओर सरकार संसद में बहस कराने और आश्वासन देने के बाद भी निर्णय में देरी कर रही है, जिससे पूरी प्रक्रिया बाधित होगी। सरकार के मंशा ज़ाहिर करने के बाद अब कई बुद्धिजीवी भी सरकार के पक्ष और विपक्ष में अपने - अपने तर्क और पूर्वाग्रहों के साथ खड़े दिखाई देते हैं। कुछ लोगो का समर्थन सिर्फ ओ.बी.सी. की गिनती करने के पक्ष में दिखता है। सवाल ये उठता है कि क्या करोड़ों रुपये खर्च कर कराये जा रहे इस जनगणना का सन्दर्भ सिर्फ आरक्षण से है ? या फिर इसका सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और विकास से जुड़ा सन्दर्भ भी है।
अगर सिर्फ ओ.बी.सी. आधारित जनगणना होती है तो ये मंडल के नाम पर चल रही राजनीति को आगे खीचने की तुच्छ कोशिश होगी। जनगणना में देश के हर नागरिक की सामाजिक (जाति ) और आर्थिक जानकारी का आंकड़ा होना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं कि सब पर जाति थोपी जाये। जिनको जाति में विश्वास नहीं है या फिर 'इन सबसे ऊपर उठ चुके है' उनके लिए 'भारतीय' या फिर 'अन्य' का आप्शन भी दिया जाये। जाति जनगणना के बाद सरकार मंडल लिस्ट के आधार पर ओ.बी.सी. की संख्या जान सकती है और एस.सी.-एस.टी. की संख्या भी। देश में कई ऐसे जनजातीय समुदाय और भाषाएँ हैं जो विलुप्त होने के कगार पर हैं, इनकी जनसंख्या का पता लगे और सरकार उनकी हिफाजत के लिए काम करे। कई समुदाय अब भी सरकार की लिस्ट में नहीं है या फिर घुमंतू जातियां हैं, इनकी सामूहिक आबादी करोड़ों में है, इनकी संख्या का भी पता लगे और योजनाओं में उन्हें शामिल किया जाये। किन्नरों को अभी तक पुरुष की श्रेणी में गिना जाता है, उनकी पहचान भी अलग होनी चाहिए। हम इस तरह के आंकड़ो को समस्या समझना छोड़ दे क्योंकि इन्ही की बुनियाद पर देश के सामाजिक- सांस्कृतिक - आर्थिक विकास की सही पृष्ठभूमि तैयार हो सकती है।
देश में जाति का जन्म आधारित सिद्धांत है, जो भी जिस जाति में पैदा लेता है उसी में मर जाता है। ये एक जड़वादी व्यवस्था है और समाज में सब कुछ बदल सकते हैं, यहाँ तक की धर्म भी, पर जाति नहीं बदल सकते हैं। समाज में आत्म स्वाभिमान और सम्मान जाति के आधार पर है और इसका एक उच्च जातिगत रुझान है। कई बुद्धिजीवी खासकर नई आर्थिक व्यवस्था के आने के बाद जोर शोर से वर्गवाद के सिद्धांत को भारतीय समाज पर थोपने में लगे है। देश में अगर क्लास सोसाइटी का उभार हो रहा है तो भी उसका जातिगत सन्दर्भ मौजूद है। जाति के सन्दर्भ में वर्गवाद की चर्चा अवश्य होनी चाहिए पर वर्ग के नाम पर जाति की समूची अवधारणा को ख़ारिज करने बौद्धिक साजिश भी कम नहीं है। देश के किसी भी अखबार के मेट्रीमोनिअल पेज का आंकड़ा देखे तो पता चल जायेगा। देश में मानवाधिकार का उल्लंघन और बलात्कार के मामलों का अध्ययन करें तो सबसे ज्यादा दलित और उसके बाद पिछड़ी जाति के लोग पीड़ित हैं। मंडल के बाद जो देश के दलित- पिछड़ी जातियों में मोबिलिटी आई है उसपर जातिवाद का लेबल चिपका देना बौद्धिक मठाधीशो एक सहज प्रवृति हो सकती है पर इससे लोकतान्त्रिक व्यवस्था और संस्थाएं मजबूत हुई है ये भी काबिले गौर है। हालाँकि दलित- पिछड़ो नेताओ की पहली जमात बौद्धिक नेतृत्व अभी तक नहीं दे पाई है पर समाज में इन प्रतीकों के महत्व से इनकार नहीं कर सकते। जो भी दलील पेश की जाए जातिगत आरक्षण को ख़त्म करना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। एक नई बहस इन दिनों शुरू है वो उच्च जाति के गरीबों को अलग आरक्षण देने को लेकर है। अगर कभी भविष्य में इसकी व्यवस्था होती भी है तो क्या सरकार इस बात को रोकने के लिए सक्षम है कि सक्षम सवर्ण इसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। इसलिए एक ऐसी जातीय जनगणना होनी चाहिए जिसमें देश के सभी नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक पहलू का जिक्र हो ताकि आरक्षण के लाभ के लिए जाति और आर्थिक आधार का दुरुपयोग रोका जा सके। अभी भी दलित और ओ.बी.सी. के आरक्षण के दुरूपयोग के मामले कम नहीं है।
ओ.बी.सी. जनगणना करा देने मात्र से जाति आधारित सारी समस्याएं ख़त्म हो जायें ऐसा भी नहीं है। कई जातियां और उप- जातियों की तरफ से दलित और ओ.बी.सी. में शामिल करने को लेकर मांग और आन्दोलन होते रहते है। सरकार भी मंडल लागू होने के बाद समय- समय पर कई ऐसे समूहों को आरक्षण की लिस्ट में शामिल कर मांग पूरी करती रही है। इस सन्दर्भ में जाति आधारित जनगणना का एक विकल्प नजर आता है। सारी पार्टियां आरक्षण की अवधारणा को स्वीकार करती हैं लेकिन ये स्वीकार कोई भी नहीं कर सकता कि आरक्षण देश की जातिगत समस्याओं का एक स्थाई समाधान है। लिहाजा इस पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन पालिसी को तात्कालिक जरूरत समझते हुए भविष्य में इसके स्थाई समाधान पर काम करना होगा। दूरगामी भविष्य में आरक्षण से परे किसी भी नई नीति पर काम करने के लिए, अथवा पालिसी और प्लानिंग के लिए जातीय जनगणना के रिकॉर्ड एक महत्वपूर्ण आधार होंगे।
एक बड़ा तबका ये प्रचारित करने में लगा है कि जातीय जनगणना से देश में जातिवाद बढ़ जायेगा। इस प्रकार की डाइवर्सिटी पश्चिमी देशों सहित दुनिया भर में है। अमरीका, ब्रिटेन में भी इस प्रकार की जनगणना होती है जहाँ सभी रेस के लोगो ब्लैक, व्हाइट, हिस्पैनिक, एशियन सभी के आंकड़े इक्कट्ठे किये जाते है। क्या इस देशो में लोकतंत्र ख़त्म हो गया है ? भारत में भी धर्म के आधार पर जनगणना होती रही है और हाल ही में एक सर्वे ये जानने के लिए सरकार की ओर से हुआ की देश की नौकरियों में अल्पसंख्यकों की संख्या कितनी है। तो क्या धर्मान्धता लोकतंत्र पर हावी हो गयी है ? हर जनगणना में हिन्दुओं की आबादी देश में सबसे ज्यादा दिखाई जाती है, इस सन्दर्भ में भारत एक हिन्दू राष्ट्र हो महज एक अवधारणा हो सकती है पर सबको मालूम है कि ये संभव नहीं और ये विचार हर चुनाव में मात खाती है। जो लोग धर्मनिरपेक्षता के समर्थक है उन्हें सामाजिक न्याय और समानता का तत्व स्वीकार करने में क्या दिक्कत हो सकती है? अगर देश में जाति आधारित जनगणना गलत है तो धर्म आधारित जनगणना के पक्ष में क्या अलग बौद्धिक दलील है ?
हाल ही में राजेंद्र सच्चर और रंगनाथ मिश्र ने अल्पसंख्यकों के कल्याण से संबंधित दो अलग- अलग रिपोर्ट पेश की है इसके बाद से देश भर में माइनोरिटी आरक्षण को लेकर राजनrतिक बहस छिड़ी है। कई प्रोग्रेसिव और सोसलिस्ट इस मुहिम में शामिल है। बहुत ही कम लोगो को याद होगा की पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने मंडल के बाद के दौर में इस मुस्लिम आरक्षण की बात को कई मर्तबा उठाया था। तब समाजवादी नेता मधु लिमये ने फोन कर और पत्र लिखकर केसरीजी की इस बात का विरोध किया था की धर्म आधारित आरक्षण संविधान सम्मत नहीं है और अगर वे इतने ही चिंतित है तो सभी अल्पसंख्यक समुदाय के दलित और ओ.बी.सी. को उनके हिन्दू भाइयों की तरह बराबरी का दर्जा क्यों नहीं दिला देते। मधु लिमये का मानना था की धर्म एक ग्लोबल फेनोमेना है वहीँ जाति एक स्थानीय फेनोमेना, इस नाते धर्मान्धता हमेशा जातिवाद से ज्यादा खरतनाक है। भारतीय समाज के हर जानकार को पता है कि यहाँ हर धर्म जाति विभक्त है और उनमें दलित पिछड़े है चाहे इस्लाम हो, क्रिस्चियन हो, सिख या बौद्ध- जैन। भारत के किसी भी धर्म में शामिल ये तत्व उसे दुनिया के किसी भी सामान धर्म से अलग करते हैं। हालाँकि अल्पसंख्यक पिछड़ो को मंडल कमीशन के तहत आरक्षण मिला है पर उनके दलित अभी भी वंचित हैं। देश के बुद्धिजीवी क्यों नहीं माइनोरिटी समुदाय के बृहत् हित में उनके दलित - पिछड़ो को हिन्दुओ के बराबर अधिकार की बात करते है। इस परिप्रेक्ष्य में भी जाति आधारित जनगणना एक बेहतर आंकड़ा देगी जिससे अल्पसंख्यक समाज में जाति और उसके डेप्रिवेशन का अध्ययन किया जा सकता है।
किसी भी राजनीतिक दल के लिए धर्म और जाति के नाम पर खेल करना आसान है लेकिन जातिगत आंकड़े इस पूरे खेल को ख़त्म कर देंगे। तब कोई भी दल और सरकार हाशिये के लोगो के हक़ में नीतिगत और विकास से जुड़ा फैसला लेने को बाध्य होगी। नई आर्थिक नीति और सूचना क्रांति के बाद हर समाज की उत्सुकता राजनीतिक भागेदारी को लेकर जितनी है उससे ज्यादा अर्थव्यवस्था में भागेदारी को लेकर है। ऐसे में क्या गलत है कि हर समाज खासकर दलित- पिछड़ो को उनका सामाजिक - राजनितिक और आर्थिक बराबरी मिले। इन्हें वंचित रखने की कोई भी दलील शर्मनाक है और एक्सक्लुसिविटी एवं सुपिरिअरिटी के सिद्धांत पर आधारित है।
जाति कोई शिव का धनुष नहीं जो कोई राम आएगा और एक बार में तोड़ डालेगा। जाति कोई देवी- देवताओ की कहानियों की तरह कोई मिथ्या नहीं है बल्कि समाज की क्रूर हकीकत है। जाति समाज में बहुसंख्यक तबके की निजी पहचान से जुड़ा मसला है फिर सीधे तौर पर इसे ख़ारिज करना आगे बढ़ रहे दलित- वंचित समाज के खिलाफ एक बौद्धिक साजिश है- पहचान से वंचित रखने की, डी- पोलिटिसाइज करने की और अंततः हाशिये पर बनाये रखने की। लोकतंत्र के किसी भी स्तम्भ का अध्ययन करें तो एक ख़ास तबके का वर्चश्व साफ़ नजर आता है, जो अपने आप ही नहीं बनी है बल्कि एक प्लानिंग के तहत बनाया गया सिस्टम लगता है। ओपिनियन मेकर की भूमिका निभाने का दावा करने वाली मिडिया भी इस जातिगत पूर्वाग्रह से वंचित नहीं है। जाति बहस और विमर्श से टूटेगी, ज़ाहिर है बहुत लम्बा वक़्त लगेगा। लेकिन इस मुहीम में वास्तविक प्रोग्रेसिव की बड़ी भूमिका होगी- जिनके चेहरे पर मुखौटा नहीं हो और जिनके नीति व नियति में फर्क नहीं हो।
देश के सामाजिक विकास और उसमें दलित- पिछड़ो- वंचितों की भागीदारी का सही आइना जातिगत जनगणना के माध्यम से ही सकेगी। इससे ही देश में जाति के नाम पर चल रही अन्यथा राजनीति और गैर जरूरी जातिगत मांगो पर रोक लगेगी। इस प्रकार की जनगणना से मिले आंकड़े का प्रयोग समाजशास्त्रियों, विकास नीति के निर्धारको और विभिन्न सरकारों के द्वारा देश के सामाजिक- सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में बेहतर किया जा सकता है। अगर इस बार ये जाति आधारित जनगणना नहीं होती है तो फिर ये बहस दस सालों के लिए पीछे चला जायेगा। आइये निःसंकोच होकर देश के एक बड़े सामाजिक मसले पर चर्चा करें, इसकी पीड़ा और त्रासदी को उजागर करें और दूरगामी भविष्य में इसे ख़त्म करने की नीव डाले। ज़ाहिर है मतभिन्नता होगी पर इससे समाज और लोकतंत्र मजबूत होगा।