Wednesday, September 28, 2011

वो दिमाग जो खुशामदी नहीं है, सरकारों के लिए खतरा है!


विचार को लेकर सत्ता प्रतिष्ठान और व्यक्ति के बीच संघर्ष की अपनी ही गाथा है, जो पौराणिक काल से चली आ रही है। जाहिर है कि एक बड़ी क्रांति की नींव विचार की बदौलत ही संभव है। प्राचीन भारतीय कालखंड में मिथकों की परंपरा की बात करें, तो रामायण के संदर्भ में रावण और महाभारत काल में कौरवों की सत्ता के खिलाफ राम और कृष्ण को एक विचार मान सकते हैं। नंद वंश के सत्ता काल में चाणक्य एक विचार बन कर उभरे। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध भी विचार संस्कृति के आदर्श बने, जिसे तत्कालीन राजशाही ने गौर के काबिल भले ही न समझा हो लेकिन वे आज भी प्रासंगिक हैं। गैलीलियो और अरस्तु अपने वक्त में इन्हीं सत्ता प्रतिष्ठान की साजिश के शिकार हुए थे। स्पेन के लोककवि लोर्का ने बुलफाइटर का शोकगीत क्या लिखा, मौत के घाट उतार दिये गये। पंजाब के मशहूर कवि पाश को भले ही मार दिया गया, पर उनकी कविता की ये पंक्ति वैचारिक मौजूदगी का एहसास कराने के लिए काफी है…

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना

सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।

वो राजशाही का दौर था या फिर बर्बर सभ्यताओं का काल, जब सत्ता से अलग विचार बनाने का परिणाम मौत हुआ करती थी। लेकिन लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही संवाद और विवाद को वैचारिकता का स्वाभाविक परिणाम समझा जाने लगा। अंग्रेजों ने भले ही भारत पर शासन किया हो, कई ऐसे उदाहरण हैं, जब वैचारिक विरोध को सहजता से स्वीकार किया है। हिंदी के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर अंग्रेजों की सरकार में रजिस्ट्रार दफ्तर में नौकरी करते थे, पर सरकार की मुखालफत का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। दिनकर जी अंग्रेजों के मुखर विरोधी के रूप में लोकप्रियता के बावजूद नौकरी से न तो निलंबित किये गये और न ही बर्खास्त। आजादी के बाद दिनकर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कई नीतियों के तल्‍ख आलोचक रहे। लेकिन बावजूद इसके नेहरू काल में दो बार कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने। कहां नेहरू ने बदला लिया। 70 के दशक में इमरजेंसी के दौर में लिखने-बोलने वालों को जेल में डालने की हिमाकत इंदिरा गांधी ने की। इस एंटी इमरजेंसी मूवमेंट के मुखर आंदोलनकारी जो आज के बड़े नेता हैं, वैचारिक विरोध पर अपने दल के नेताओं को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकने में गुरेज नहीं करते हैं। ये राजनीतिक संस्कृति लोकतंत्र के लिए निश्चित तौर पर बाधक है।

इतनी बड़ी भूमिका के बाद अब असली चर्चा पर आते हैं। इक्कीसवीं शताब्दी के सूचना क्रांति के दौर में विचार का दायरा भले ही काफी बढ़ गया हो लोकतंत्र में लिखने-पढ़ने वालों पर अंकुश लगाने की खतरनाक प्रवृत्ति अब भी कायम है। ये बात ग्लोबलाइज्ड ऑनलाइन वर्ल्ड में खास हैरानी का कारण बन जाता है, जब खबर दुनिया के प्राचीनतम गणतंत्र कहे जाने वाले राज्य बिहार से हो।

बिहार विधान परिषद में सहायक के पद पर काम करने वाले दो कर्मियों – मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण को फेसबुक पर लिखने के कारण नौकरी से निलंबित कर दिया गया। मुसाफिर ने विभाग से अपने भविष्य निधि खाते की जानकारी मांगी थी, जो सात सालों से अपडेट नहीं था। इसके लिए अधिकारी उन्‍हें ही फटकार लगा रहे थे जबकि ये जिम्मेदारी विभाग की थी। इसी परेशानी में मुसाफिर ने परिषद में कई लोगों के द्वारा नियमों की धज्जियां उड़ाने का हवाला देते हुए ‘दीपक तले अंधेरा’ टिप्पणी की थी। इसी को आधार बना कर निलंबन का नोटिस थमा दिया गया। वहीं अरुण नारायण को मिले निलंबन पत्र में कहा गया है कि ‘प्रेम कुमार मणि की विधान परिषद सदस्यता समाप्त करने के संबंध में सरकार एवं सभापति के विरुद्ध असंवैधानिक टिप्पणी देने के कारण तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाता है।’ अपने कारण निलंबित साहित्यकार मित्र अरुण नारायण को मणि निर्दोष मानते हैं। कहते हैं कि “अरुण नारायण और साथ ही मुसाफिर बैठा का निलंबन शर्मनाक और अलोकतांत्रिक है। मै इसकी निंदा करता हूं और सेवा में फिर से वापस लेने की मांग करता हूं। उन्‍होंने फेसबुक पर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है, जो निजी मित्र संवाद के दायरे में आता है। इसके लिए उन्हें दंडित करना तानाशाही का परिचायक है।” फिलहाल फेसबुक पर अभिव्यक्ति को लेकर नौकरी से निलंबन का देश में ये एक अनूठा मामला बन चुका है।

इन दोनो निलंबित सहायकों की पृष्ठभूमि देखें, तो कई समानताएं हैं, जो इस घटना के तीन-चार महीने पहले निलंबित सैयद जावेद हसन से भी जोड़ती है। विधान परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत जावेद ‘ये पल’ नामक छोटी सी पत्रिका निकालते रहे हैं। इसके अलावा एक उपन्यास और कहानी संग्रह (दोआतशा) लिखकर मशहूर हैं। मुसाफिर बैठा ने हाल ही में एक कविता संग्रह ‘बीमार मानस का गेह’ प्रकाशित किया है और ‘हिंदी की दलित कहानी’ पर पीएचडी की है। तो अरुण बिहार की पत्रकारिता पर शोध के अलावा पत्र-पत्रिकाओं में लिखने के कारण साहित्यकर्मी के रूप में जाने जाते हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रो जाबिर हुसैन जब विधान परिषद के सभापति थे, तो 1999 में हिंदी और उर्दू के तकरीबन 25 ऐसे साहित्यकारों को परिषद में नियुक्त किया जिनके नाम न सिर्फ पीएचडी की डिग्रियां थीं, बल्कि प्रकाशित पुस्तकें भी थीं।

विधान परिषद से इन तीन कर्मियों के निलंबन की कार्रवाई तो महज एक बानगी है। हकीकत ये है कि नीतीश सरकार के आने के बाद विधान परिषद से उन सभी नियुक्त लोगों के सफाये का अभियान शुरू हुआ, जिन्‍हें पूर्व सभापति प्रो जाबिर हुसैन ने नौकरी दी थी। तकरीबन 70 से अधिक लोग पिछले 6 साल में नौकरी से हाथ धो चुके हैं। इनमें आश्चर्यजनक रूप से बड़ी संख्या दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की है। ये भी संयोग ही है कि निलंबित किये गये मुसाफिर, अरुण और जावेद क्रमश: दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। सरकार की इस मंशा के पीछे सवाल कई हैं, जिसका जवाब अंदरखाने में मिलता है। जाबिर साहब ने सभापति बनते ही विधान परिषद के अधिकारियों की समिति बनाकर वहां की नियुक्तियों का अध्ययन करवाया तो पता चला कि 90 फीसदी से ज्यादा पदों पर सवर्ण समुदाय के लोग हैं और संविधान प्रदत्त आरक्षण कानून की जमकर धज्जियां उड़ायी गयी हैं। जाबिर हुसैन ने जब नियुक्तियां की, तो उस वक्त तक के दलित-पिछड़ों के सारे बैक-लॉग भर दिये। आंकड़े बताते हैं कि 1999 में विधान परिषद में जितने लोगों को नौकरी मिली, उनमें 70 दलित, 14 आदिवासी, 56 अति-पिछड़ा और 56 पिछड़ा वर्ग से थे। जाबिर हुसैन बताते हैं कि – “1995 में सभापति बनने के पहले तक विधान परिषद में आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी। ये आश्चर्य की ही बात थी कि जो संस्था एक संवैधानिक कानून बनाती है, वहीं पर इसका अनुपालन नहीं हो रहा था। मेरे द्वारा की गयी सभी नियुक्तियां पारदर्शी और संविधानसम्मत है, जिसे हमने प्रकाशित कर सार्वजनिक भी किया।”

विधान परिषद में नौकरी दिये जाने का इतिहास देखें तो जब जिसकी सरकार रही और जो भी सभापति रहे, उन्होंने अपने लोगों को कौड़ी के भाव नौकरियां बांटकर उपकृत किया। कई बार इन नियुक्तियों पर सवाल भी उठे, विवाद हुआ। मामला विधान परिषद के विशेषाधिकार से जुड़ा होने के कारण सभी सवाल और विवाद ठंडे बस्ते में चले गये। लेकिन इस बार मामले ने तूल पकड़ लिया क्योंकि निलंबन का आधार फेसबुक पर की गयी टिप्पणी को बनाया गया है। पटना से लेकर दिल्ली तक के हर बुद्धिजीवी सुशासन सरकार की इस कार्रवाई से हतप्रभ है। बिहार के जाने-माने साहित्यकार हृषिकेश सुलभ लिखते हैं कि – “यह इस सरकार का शर्मनाक चेहरा है। यह सरकार भी जगन्नाथ मिश्र या लालू प्रसाद की सरकार की तरह ही हिंसक है। यह घटना इस बात को प्रमाणित करती है कि – वो दिमाग जो खुशामद आदतन नहीं करता – सरकारों के लिए खतरा होता है … मुसाफिर और अरुण नारायण हमारे समय के जरूरी युवा रचनात्मक प्रतिभा हैं। हम आपके निलम्बन की निंदा करते हैं।”

बिहार में फेसबुक पर लिखने के कारण नौकरी से निलंबन की इस घटना को हल्के से कोई भले ही ले लेकिन 21वीं शताब्दी के सूचना क्रांति दौर में हुई ये घटना परम आश्चर्य का विषय है। विचार-अभिव्यक्ति पर खतरे से जुड़ी इस पूरी परिस्थिति के निर्माण में मीडिया भी कम दोषी नहीं है। ये सिर्फ ग्लोबलाईजेशन के दौर का मीडिया चरित्र नहीं है, ये मंडल के उत्तरोत्तर काल का मीडिया चरित्र है जो साफ परिलक्षित होता है – इसके वर्गीय और जातिगत संदर्भ भी नजर आते हैं। दिलचस्प ये है कि मीडिया के गढ़े गये शब्द खास तबके को संतुष्ट करने के लिए ज्यादा गढ़े जाते रहे, जो लोकतंत्र में विचार संस्कृति के खिलाफ है। ये प्रतीक शब्द किस तरह से सरकारों के माथे पर चस्‍पां कर दिये जाते हैं और फिर समाज में प्रचलित किये जाते हैं, इनका भी एक विशेष समाजशास्त्रीय संदर्भ है। लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली आरजेडी सरकार घोषित रूप से जंगल राज के रूप में कुख्यात बना दी गयी तो नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू-बीजेपी सरकार को सुशासन सरकार के रूप में देश-दुनिया में विख्यात किया गया। इन सबके बीच मीडिया के पूर्वाग्रह की हद देखिए कि न तो लालू और न ही नीतीश का व्यक्तिगत तौर पर व उनकी सरकारों का निष्पक्ष, पूर्वाग्रह रहित व तथ्यपरक विश्लेषण आजतक हो पाया है। जब फेसबुक पर लिखने के कारण निलंबन जैसी घटना को अंजाम देने का दुस्साहस सुशासन दौर में कोई सत्ता प्रतिष्ठान करता है, तो इससे दक्षिणपंथी संस्कृति की बू आती है।

पहले जावेद और अब मुसाफिर व अरुण का विधान परिषद की नौकरी से निलंबन का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। इसी बहाने कई अंदरूनी परतों के उघड़ने से विधान परिषद का सामाजिक चरित्र भी उजागर हो रहा है। जन सरोकार और जनहित से जुड़े मुद्दों के हाशिये पर चले जाने के खतरे के बीच, समर्थन-विरोध व आरोप-प्रत्यारोप से निकलते सवाल चिंता पैदा करते हैं। क्या विचार संस्कृति सुशासन में बाधक है या फिर सुशासन सुनिश्चित करने के लिए विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बलि दे दी जाएगी। जवाब सबके पास होना जरूरी है क्योंकि “जो तटस्‍थ रहेगा उसका भी दोष लिखेगा इतिहास।”