Tuesday, January 27, 2009

ओबामा की जीत के निहितार्थ

बराक हुसैन ओबामा जी के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से उनका देश ही नहीं सारा विश्व उत्साहित है / भारत मे भी खासा उत्साह देखने को मिला / ओबामा ने जिस तरह राष्ट्रपति तक का सफर तय किया वो वाकई तारीफ के काबिल हैं / भारतीय मीडिया भी पूरी तरह इस अमेरिकी जश्न मे शामिल रही / यहाँ का टेलीविजन और अंग्रेजी मीडिया पाइपर की भुमिका मे था और हिन्दी मीडिया सुर मिलाती दिख रही थी / खबरों में उत्साह के साथ अतिश्योक्तियाँ भी थी / हनुमानजी की कृपा से उनकी जीत घोषित करने से लेकर वो क्या बोले और कैसे बोले, किस तरह अपनी पत्नी के संग डांस किया, चुम्बन लिया- ये सब तस्वीरों और खबरों में था / लेकिन भाई उत्साह में हम ये क्यों भूल गए की बराक अमेरिका के नागरिक हैं भारत के नहीं और हमारे देश की समस्या का समाधान हमारी जिम्मेदारी है /

जब से ज़नाब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने है तब से एक और बात हुई की इंडियन ओबामा की सम्भावना चर्चे मे है / भारतीय मीडिया जिन नेताओं में ओबामा बनने की का स्कोप तलाश रहा है उनमे प्रमुख नाम हैं - सर्वश्री राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, ओमर अब्दुल्लाह, मिलिंद देवड़ा, सुप्रिया सुले......आदि - आदि / मायावती दलित मसीहा होते हुए ओबामा क्यों नही बन सकती ये कारण भी तलाशे गए / पता चला है की ओबामा के बाप- दादा अपने गाँव के मुखिया भी नही थे / फ़िर ये ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति कैसे बने? ओबामा को जानने और उनका लिखा किताब पढ़ने से जो समझ में आता है वो ये की कैसे एक आम शख्स ख़ुद के बड़े सपनों को सोचकर, प्लान कर पूरा कर सकता है !

ओबामा
ने मार्टिन लूथर किंग के सपनों को जरूर पूरा किया लेकिन ये भी सच है की किंग के संघर्ष की तुलना में ओबामा कहीं नहीं ठहरते / वैसे इस समय अमेरिका में रंगभेद के तत्त्व उस कदर प्रभावी नही है जितना किंग के वक्त में था / और ये मार्टिन लूथर ही थे जिन्होंने अमेरिकी संप्रभु वर्ग के रीढ़ और गुरूड़ को तोडा था / अब्राहम लिंकन ने अमेरिका मे कानून लाने का दुस्साहस किया जिसके लिए उन्हें अमेरिकी पुरातनवादी व्यवस्था के पोषकों ने लाख गलियाँ दी / लिंकन ने इतना बड़ा कानून लाया पर शुरूआती दौर से रंगभेद के मुखर विरोधी हों ऐसा नहीं था / राष्ट्रपति बनने और दास प्रथा कानून लाने के बाद भी काले लोगों से उनका सामाजिक सरोकार के बराबर थे / फ़िर भी वक्त की नजाकत को देखते हुए उन्होंने ये राजनीतिक कदम उठाया और इतिहास के पूर्वाग्रह को तोड़कर भविष्य मे होने वाले बड़े बदलाव का मार्ग प्रशस्त किया / बाद के राष्ट्रपतियों ने भी रूढ़ीवादिता दिखाते हुए व्यवस्था में काले लोगों के लिए जगह बनाया / आज अमेरिकी जीवन के सभी क्षेत्रों में - राजनीति, शिक्षा, व्यापार- उद्योग, कला- साहित्य- फ़िल्म, प्रशासन, न्यायालय और मीडिया सभी मे काले लोगों की भागेदारी है / ये सब वहां के सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति की बदौलत प्रारम्भ किए गए अफर्मेटिव एक्शन से सम्भव हुआ है / और इसी परिवर्तन का परिणाम है की ओबामा अमेरिका के इलेक्टेड राष्ट्रपति बन सके /

जब
नोमिनेशन का दौर चल रहा था तो अमेरिका और भारत की मीडिया हिलेरी क्लिंटन के राष्ट्रपति बनने को लेकर भविष्यवाणी करने लगी थी और उत्साहित थी / कई आंकलन और विश्लेषण छपे की क्यों हिलेरी अच्छी उपयुक्त है राष्ट्रपति है और ओबामा के राष्ट्रपति बनने की राह में क्या दिक्कतें बाधाएं हैं / प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष तौर से एक ब्लैक- माइनोरिटी समुदाए को राष्ट्रपति बनाकर इतिहास रचने कि बजाए महिला राष्ट्रपति बनाकर इतिहास रचने की बात मीडिया ज्यादा तवज्जो दे रहा था और ओबामा के लिए गुंजाईश कम थी / जब ये सुनिश्चित हो गया की ओबामा ही डेमोक्रेट उम्मीदवार होंगे तभी मीडिया ने सही तौर पर ओबामा का सही आंकलन करना शुरू किया / ओबामा और हिलेरी के डोनर्स की लिस्ट देखें की कहाँ से, किसने और कितना चंदा दिया तो वस्तुस्थिति और साफ़ हो जायेगी / ओबामा की पृष्ठभूमि को लेकर जो कैम्पेन के दौरान 'स्लांट' प्रयोग किए गए विपक्षी नेताओं की ओर से उसमे हिलेरी के सुर भी शामिल रहे हैं / अब ओबामा की जीत के बाद इंटेलेक्चुअल रेक्टिफिकेशन किया जा रहा है वहीं हिलेरी सरकार मे शामिल हो या यूँ कहे ओबामा की हितैषी बन भविष्य के लिए प्रायश्चित कर रहीं हैं / ये अफ़सोस की ही बात थी की इतिहास के एक इतने बड़े बदलाव को अगर बौद्धिक समाज महसूस कर रहा था फ़िर भी हलके से कहता रहा /

भारतीय
ओबामा ढूंढने की पूरी चर्चा अति उत्साह का परिचायक है / क्या ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में हमारे आदर्श भी विदेशों से आयात किए जायेंगे ? ओबामा की टीम में एक नही अनेकों भारतीय शामिल हैं जो हमारे देश की धनी प्रतिभा का परिचायक है / यही नही देश में अनेकों ऐसे शख्सियत हैं जो ओबामा से ज्यादा विद्वान, प्रतिभाशाली, आदर्शवादी और दूरदर्शी रहे हैं / महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, सरदार बल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, बी आर अम्बेडकर, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण आदि नेताओं की लम्बी सूची मौजूद है /

हमें ओबामा नही एक मूल भारतीय आदर्श चाहिए जो जाति- धर्मं- क्षेत्र की भावना से ऊपर उठकर आम लोगों के हक- हकूक को सुनिश्चित करे, हमारी संस्कृति सरोकार को बचाए और देश को चहमुखी विकास के रास्ते पर ले जाकर विश्व का अग्रणी राष्ट्र बनाये / हाँ! अमेरिकी सामाजिक- राजनीतिक संदर्भो में ओबामा की जीत एक बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि है, साथ ही एक नए युग का सूत्रपात भी / फिलहाल ओबामा को अमेरिका का नया राष्ट्रपति बनने पर हार्दिक बधाई और साथ ही भविष्य के लिए बहुत सारी शुभकामनाएं /

Monday, January 26, 2009

निजी पहचान का संकट

वह है या नही / क्या फर्क है इनमे / एक मृगतृष्णा की तरह वह दूर नज़र तो आती है पर ज्योंही पास जाता हूँ, जाने कहाँ खो जाती है/ और फ़िर मरुस्थल के भटकते राही की तरह प्यासा ही दम तोड़ देता हूँ/ यहाँ दो तरह की अनुभूतियाँ विद्यमान है / हो सकता है की बात साहित्यिक कम और दार्शनिक ज्यादा लगे परन्तु यथार्थ से शायद ही कोई इन्कार करे /

एक औरत ( ज़ाहिर हैं खुबसूरत सी !) की मांग में सिन्दूर का होना या होना- फर्क है / अगर मांग भरी है तो ज़ाहिर है शादी- शुदा होगी / पर अगर मांग सूनी है तो बात गंभीर हो जाती है क्योकिं वह कुवांरी, विधवा या परित्यक्ता -इन तीनों मे से कोई भी हो सकती है / यहाँ सिन्दूर का महत्व बड़ा ही 'प्रतीकात्मक' है / यही कारण है की युवतियाँ कुछ भी पहन ले, कम पहने या के बराबर पहने; सिन्दूर तो भूले से भी नही लगाती / यों आजकल 'फेमिनिज्म' का विचार तेजी से प्रचलन मे आया है सो औरतों का सिगरेट या शराब पीना भी कोई बहस का मुद्दा नही रहा / 'पेज थ्री' पार्टियों के अख़बार और टेलिविज़न की सुर्खियों को देखकर तो ऐसा ही लगता है /

अब तक के पाँच हज़ार सालों के पुरूष प्रधान वर्ण व्यवस्था पोषक सामंती समाज में महिलाओं का खूब जमकर शोषण हुआ है जो अब तक जारी है / महिला होना ही पैदाइशी संघर्ष का दूसरा नाम है और जो महिला होने के साथ दलित या पिछड़े जाति- वर्ग से आती हैं, उनकी पीड़ा तो अवर्णनीय ही है / जहाँ तक आज का सन्दर्भ है, नीतिगत तौर पर तो बड़े परिवर्तन आए हैं परन्तु नियति के तौर पर कोई ख़ास परिवर्तन हमारे समाज मे अभी तक नही पाया है / मर्द भी 'फ्लर्ट' होते जा रहे हैं वहीँ महिलाओं ने भी कमसिन हसीन दिखने की कोशिश में जहाँ एक ओर कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधनों का लबादा ओढा, 'मिनी' और 'माइक्रो' को भी प्रचलन में लाया /

यहाँ उपर्युक्त सन्दर्भ में महिलाओं को उनके पहनावे को लेकर कोई आपत्ति नही प्रकट की गई है वैसे भी ये उनके निजी स्वतंत्रता का सवाल है / पर एक बात जरूर कहना चाहूँगा की परिवर्तन अगर स्वाभाविक हो और उसका आधार वैचारिक हो तो हमें किसी भी बदलाव का सम्मान करना चाहिए / पर इस तेज परिवर्तन वाले 'ग्लोबलाइजेशन' के दौर में जब पश्चिमी सभ्यता का अचानक प्रकोप बढ़ता जा रहा है; इस तरह का सांस्कृतिक पलायन अवश्य ही चिंता का कारण हो सकता है / लेकिन इससे अछूता रहना भी मुश्किल है /

विदेशी पूँजी निवेश के बाद देश की आर्थिक तरक्की के चाहे लाख आंकड़े- दावे पेश किए जाएँ इस समाज की मूल हकीक़त तीन सामाजिक सन्दर्भों में अन्तर्निहित है - पहला, गैर संगठित कृषक समाज / दूसरा, दलित पिछड़ा समाज / और तीसरा, आधी आबादी यानि महिला समाज / इन तीन वर्गों के हक़- हकूक और तरक्की सुनिश्चित किए बिना किसी भी विकास की बात सिर्फ़ बेमानी है / बात चूँकि यहाँ महिलाओं की हो रही है, ये हमें मान लेना चाहिए की औरतों को सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक बराबरी का सवाल महज किट्टी पार्टी सर्कल व "शहरी- संभ्रांत- परकटी" महिलाओं का हथकंडा भर नही रह गया है / ये बात पचास फीसदी आबादी का भी सवाल है, इन्हे अधिकार देने की बात से किसी को ऐतराज़ हो अफसोसजनक है, हाँ ! आप बराबरी दिए जाने के तौर तरीके जो नीतिगत मसला है उसपर भले ही उंगली उठा सकते हैं /

साफ़ साफ़ शब्दों मे कहें तो बात ये भी है की जब संपूर्ण जनसंख्या का आधा भाग महिलाओं का हो, उनके व्यवहारिक और वैचारिक परिवर्तन को हल्के से नहीं लिया जा सकता है / स्पष्ट है की इस परिवर्तन की जरूरत उनके निजी पहचान को लेकर विभिन्न स्तरों पर हो रहे संघर्ष का स्वाभाविक परिणाम है क्योंकि ये वही आधा भाग है जिसके बिना 'अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना तो सम्भव है ही नहीं, सृष्टि संकट अवश्यम्भावी है /
(नोट- चित्र http://www.milonm.com/से साभार ।)