Tuesday, February 14, 2012

शरद यादव ऑन मिडिया !!!!!


मिडिया की दुकानदारी से एन.डी.ए. कॉन्वेनर और जे.डी.यू. के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव काफी खफा है। शरद यादव कहते हैं कि चुनावी प्रक्रिया में सुधार करके लोकतंत्र को मजबूत करना है तो सिर्फ राजनीतिक सुधार से कुछ नहीं होगा मिडिया में बड़े तौर पर सुधार की जरूरत है। मिडिया में बढ़ती दलाली, ठेकेदारी, चाटुकारिता और चापलूसी संस्कृति से शरद यादव नाराज है। इनदिनों शरद खुलकर मिडिया से जुड़े मसलों पर बोल रहे हैं। लखनऊ में 14 फरवरी को उन्होंने मिडिया पर अपनी बात कुछ इस तरह से रखी जो मिडिया से किसी भी रूप में ताल्लुकात रखने वाले लोगों को जानना और सुनना चाहिये।

बिहार के सियासी दल बनेंगे उत्तर प्रदेश में वोटकटवा !!!



बात मकर संक्रांति के दिन की है। बी.जे.पी. के एक नेता के घर दही- चुड़ा खाने का कार्यक्रम था। कमोबेश इन्हीं दिनों जे.डी.यू. उत्तर प्रदेश का चुनावी जंग बी.जे.पी. से अलग होकर लड़ने का मन बना चुकी थी। बातचीत के दौर में ही जनाब बिहार एन.डी.. के सिरमौर कहे जाने वाले नेताजी कह बैठे कि - जिन्हें हम अपनी पार्टी से टिकट नहीं देगें उसे अपने सहयोगी से दिलवा देंगे। अब बात हलके में या मजाक में कही गयी भले हो लेकिन इसकी हकीकत से इन्कार भले ही किया जा सके। बिहार की राजनीति को नजदीक से देखने वाले लोग भी जानते हैं कि किस तरह लालू यादव ने कालांतर में कांग्रेस को पूरी सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये मनाकर वोटकटवा बना दिया और सत्ता में पुनर्वापसी भी की। इस प्रॉक्सी पॉलिटिक्स के तकाजे से देश की राजनीतिक समझ रखने वाले लोग बखूबी दो- चार हैं। राजनीति में चुनावी समझौता करना और सहयोगी बनना आमबात है। लेकिन बैकडोर से अंदरूनी समझौते के तहत उम्मीदवारों को खड़ा कर वोट काटना और अपने सहयोगी को जितने में मदद करना भी वर्त्तमान राजनीति का तकाजा बन चुका है। अगर इस पूरे संदर्भ को संज्ञान में लें तो सवाल उठता है कि लालू यादव तो कांग्रेस के पक्ष में सरेन्डर बोल चुके हैं ! पर क्या उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के लिये एल.जे.पी. और बी.जे.पी. के लिये जे.डी.यू. इसी वोटकटवा की भूमिका में है?

उत्तर प्रदेश के चुनाव में बिहार की तीन प्रमुख सियासी पार्टियाँ भी अपना दम ठोक रही हैं और राजनीति का विस्तार करने में जुटी हैं। बी.जे.पी. से अलग उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी जनता दल यूनाईटेड ने 403 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर दिया है जिससे जाहिर है कि 2014 के राष्ट्रीय परिदृश्य में अपना दबदबा कायम करना चाहती है। वहीं मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल सेक्यूलर मतों का बिखराव रोकने के लिये ज्यादा सीटों पर लड़ने के मूड में नहीं है और लालू यादव की पूरी रणनीति कांग्रेस हाईकमान व युवराज को खुश करने की है। तो लोक जनशक्ति पार्टी दफ्तर ढ़ूढ़ने पर भले ही मिल जाये पर नेता ढ़ूढ़ना बहुत मुश्किल है लेकिन रामविलास पासवान 403 सीटों पर लड़ने का मन बना चुके है। इस पूरे परिदृश्य में साफ है कि इन दलों से ज्यादा इनके नेताओं का वजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव पर अँटका हुआ है। चुनाव परिणाम से न सिर्फ इन दलों का जमीनी धरातल पर मजबूती साबित होगी, लालू- रामविलास - नीतीश कुमार की बिहार के बाहर असर भी साबित होगा।

बिहार में जनता दल यूनाईटेड और भारतीय जनता पार्टी की मिली जुली सरकार चल रही है। बिहार में जे.डी.यू. - बी.जे.पी. पिछले कई सालों से साथ चुनाव लड़ा करते है और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) का अहम हिस्सा है। इस एन.डी.ए. (राजग) गठबंधन के कन्वेनर जे.डी.यू. के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव में पार्टी ने सभी 403 सीटों पर लड़ने का ऐलान किया है। जाहिर सी बात है कि जे.डी.यू. के लिये इस बड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में शरद यादव- नीतीश कुमार और पार्टी में उत्तर प्रदेश से जुड़े दो खास नेता राज्यसभा सदस्य आर.सी.पी. सिंह और राष्ट्रीय महासचिव के.सी.त्यागी शामिल हैं। इसमें आर.सी.पी. सिंह नीतीश के खासमखास तो हैं ही, खास बात की उत्तर प्रदेश कैडर के आई.ए.एस. अधिकारी भी रह चुके हैं। इनदिनों जब उत्तर प्रदेश चुनाव की गतिविधियाँ तेज हैं जे.डी.यू. के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव, आर.सी.पी. सिंह और के.सी.त्यागी राजधानी लखनऊ में हरसंभव मौजूद रहकर इस पूरे चुनाव का निर्देशन कर रहे हैं। जे.डी.यू. भट्टा परसौल किसान आंदोलन के नेता मनवीर तेवतिया को जेवर विधानसभा से टिकट दिया है तो कई पूर्व सांसदों, विधायकों और दूसरे दलों के विक्षुब्ध निवर्त्तमान विधायकों को चुनाव में उतारा है। उत्तर प्रदेश के बहाने जे.डी.यू. अपना राजनीतिक विस्तार बिहार के बाहर करना चाह रही है और 2014 के चुनाव में अपने बढ़े दबदबे का ऐहसास राष्ट्रीय स्तर पर भी कराने की ख्वाहिशमंद है। 2002 के उत्तर प्रदेश विधानसभा में जनता दल यूनाईटेड के 2 सदस्य थे तो 2007 के विधानसभा में 1 सदस्य मौजूद था। उधर केन्द्र सरकार में कांग्रेस की सहयोगी तृणमूल कांग्रेस ने भी उत्तर प्रदेश के सभी विधान सभा सीटों के लिये उम्मीदवारों की सूची बना रखी है और बताया जा रहा है की तृणमूल तकरीबन 200 सीटों पर चुनाव लड़ने के मूड में है। वैसे इस तरह की चर्चा भी गरम है कि तृणमूल का जे.डी.यू. से गठबंधन हो सकता है। लेकिन जे.डी.यू. और तृणमूल दोनों की ही राष्ट्रीय पार्टी के रूप में वजूद बनाने की महत्वकांक्षा के कारण ये गठबंधन सिर्फ चर्चा के तौर पर ही जारी है। उधर बी.जे.पी. को उत्तर प्रदेश चुनाव में एन.डी.ए. के अहम सहयोगी के अलग चुनाव लड़ने पर बहुत जवाब देने की स्थिति में नजर नहीं आती है। उत्तर प्रदेश के लिये जारी विजन डॉक्यूमेंट में नीतीश कुमार की तस्वीर और बिहार के सुशासन की खास चर्चा कर बी.जे.पी. ने अपने सहयोगी के प्रति तल्खी को कमतर कर दिखाने की कोशिश की है। उत्तर प्रदेश में बी.जे.पी. अभियान समिति के संयोजक कलराज मिश्र कहते हैं कि "सीटों पर तालमेल के अभाव और जे.डी.यू. की महत्वकांक्षा के कारण समझौता नहीं हो पाया लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य में दोनों दल अहम सहयोगी हैं। वैसे भी जे.डी.यू. के नेता ही एन.डी.ए. के संयोजक हैं।" बी.जे.पी. अपने सहयोगी के अलग चुनाव लड़ने पर बहुत नहीं बात करना चाहती है वहीं जे.डी.यू. के नेता खुलकर बात करते हैं जिसमें पार्टी की राष्ट्रीय महत्वकांक्षा साफ झलकती है। अब ये भी देखने की बात होगी की जिन इलाकों में दोनों पार्टियाँ एक दूसरे को सीधी टक्कर दे रही होंगी, इसके नेता कैसे बचाव करते हुये प्रचार करते हैं। इस सबके बीच उत्तर प्रदेश में जे.डी.यू. के भविष्य को लेकर काफी उत्साहित पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव कहते हैं कि "राष्ट्रीय स्तर पर और बिहार में एन.डी.ए.बखूबी मौजूद है पर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात में पार्टी जनता के प्रति नैतिक जिम्मेदारी लेकर मैदाने जंग में है। हमारा मकसद सिर्फ चुनाव लड़ना नहीं है बल्कि विचारधारा के स्तर पर जनहित में आन्दोलन खड़ा करना है।"

बिहार में लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल मुख्य विपक्षी पार्टी है। बिहार की विधानसभा में इसका वजूद बहुत कमतर है। यही नहीं सड़कों पर भी आन्दोलन के बगैर आर.जे.डी. की नैया डगमगा रही है। फिलहाल लालूजी दिल्ली दरबार को खुश करने में लगे हैं। उत्तर प्रदेश में भी पार्टी ने सांप्रदायिक ताकतों का नेस्तनाबूद करने और सेक्यूलर फोर्सेज को मजबूत करने का ऐलान किया है। पहले तो पार्टी के राष्ट्रीय संगठन को प्रतीकात्मक रूप से जिंदा रखने के लिये लगभग 10 सीटों पर लड़ने का प्लान बना रही थी लेकिन कांग्रेस की ओर से थोड़ा संकेत मिलते ही लालूजी एक सीट लेकर खुश हो गये। 2007 के विधानसभा चुनाव में आर.जे.डी. ने करीब 35 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिसमें से 2 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी वहीं करीब 8 से 10 सीटों पर तीसरे नंबर पर रहकर बेहतरीन परफॉर्मेन्स किया था। इस बार कांग्रेस ने लालू यादव के एक समधी जितेन्द्र यादव को गाजियाबाद जिले की विधानसभा सीट से चुनाव में उतारा है और इस बात के भी स्पष्ट संकेत मिलते रहे हैं कि कांग्रेस और आर.जे.डी. के बीच अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। आर.जे.डी. के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष अशोक सिंह कहते हैं कि - "हम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने पर जोर देंगे और भारतीय जनता पार्टी जैसी सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों को कम से कम संख्या पर निबटाने के लिये काम करेंगे।"

बिहार की सियासी पार्टियों में उत्तर प्रदेश में सबसे हास्यास्पद स्थिति रामविलास पासवान की पार्टी लोकजनशक्ति पार्टी की है। एल.जे.पी. ने उत्तर प्रदेश में पिछली मर्तबा करीब 200 सीटों पर चुनाव लड़ा था पर 1 भी सीट जितने में असफल रही थे। मिडिया के हलके या फिर आम लोगों से पूछे तो उत्तर प्रदेश में इसका नामलेवा बामुश्किल से बचा है। अब सुप्रीमों ने 403 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। इस पार्टी का दफ्तर लखनऊ में ढ़ूढ़ना शायद संभव हो जाय पर नेता ढ़ूढ़ना बड़ा ही कठिन है। लगता तो यही है कि रामविलासजी अपने बढ़े वजूद के साथ काँग्रेस में विलय की तैयारी उत्तर प्रदेश चुनाव के बहाने कर रहे हैं।

एक तौर पर कहें तो स्थिति बिल्कुल वैसी ही है जैसी बिहार के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का सभी सीटों पर चुनाव लड़ना। इस बार ये बिहार की सियासी पार्टियाँ उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में हैं। इस तीनों दलों में जे.डी.यू. कुछ ज्यादा कांफिडेन्स में नजर आ रही है और उसके कई सीट जितने की उम्मीद भी लगाई जा रही है। अगर जे.डी.यू. कुछ सीटें जीत लेती है तो त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में अपनी भूमिका तलाश सकती है, साथ ही वोटों का प्रतिशत ठीक रहने की स्थिति में भी ऱाष्ट्रीय पार्टी के तौर पर वजूद बनाये रखने में मदद मिलेगी। लेकिन जे.डी.यू. की पूरी रणनीति के पीछे 2014 के आगामी लोकसभा चुनाव के बाद की भूमिका है जिसमें पार्टी बेहतर व बड़ी भूमिका निभाना चाह रही है और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राष्ट्रीय स्तर पर भावी राजनीतिक महत्वकांक्षा का दिल्ली की ओर रास्ता भी उत्तर प्रदेश से ही हो कर जाता है। जे.डी.यू. से सीधे तौर पर बी.जे.पी. को थोड़ा घाटा होता दिखता है क्योंकि अगर ये दोनों दल साथ लड़ते तो बी.जे.पी. को भी सेक्युलर पार्टियों के मुकाबले खुद को रखने में मदद मिलती। लेकिन जब जे.डी.यू. अकेले बूते लड़ रही है तो बी.जे.पी. सहित सेक्यूलर दलों को भी उन इलाकों में खामियाजा भुगतना पड़ सकता है जहाँ हार जीत का अंतर कम होगा। आर.जे.डी. कांग्रेस के समर्थन में चुनाव मैदान में नहीं है लेकिन इसका बहुत लाभ कांग्रेस को होगा ऐसा भी नहीं है। कांग्रेस ने लालू यादव के नये समधी जितेन्द्र यादव को चुनावी मैदान में उतारा है तो ये बात भी चर्चे में है कि लालू क्या कांग्रेस के पक्ष में उत्तर प्रदेश में प्रचार करेंगे। अगर ऐसा होता है तो शायद कांग्रेस को कुछ लाभ भले न मिले लेकिन राहुल के बाद लालूजी के नाम पर कुछ भीड़ जुटाने में जरूर मदद मिलेगी। राज्य के राजनीतिक हालात में आम जनता समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच सीधी पहले- दूसरे नंबर से लिये टक्कर की संभावना देख रही है ऐसे में मुलायम और अखिलेश को छोड़ जनता - खासकर यादव-अल्पसंख्यक-पिछड़ा मतदाता लालू को सुन सकते हैं पर लालू के नाम पर उत्तर प्रदेश में वोट करेंगे इस आसार दूर- दूर तक भी नहीं दिखता है। उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम जो भी हो, बिहार की सियासी पार्टियों की राष्ट्रीय राजनीति मे दशा-दिशा और भविष्य जरूर सुनिश्चित होने जा रहा है। साथ ही इस विधानसभा चुनाव का परिणाम ये भी तय करेगा की क्या जे.डी.यू. और एल.जे.पी. दोनों उत्तर प्रदेश के चुनाव में सिर्फ वोटकटवा की भूमिका में थे। तबतक लालू- रामविलास व शरद-नीतीश के हर कदम पर इन दलों के नेताओं और समर्थकों ने टकटकी लगा रखी है तो विरोधियों ने भी नजर पैनी कर रखी है।
(मैग्निफिसेन्ट न्यूज के 'जनवरी' अंक में प्रकाशित।)

Sunday, February 5, 2012

हिना फिर आना लेकिन....

दिल अब भी हिनहिना रहा है। ऐसा लगता है कि आदमी न हुये घोड़ा हो गये या फिर घुड़दौड़ के जॉकी हो गये। जब से हिना जी भारत घुम कर गयी हैं, 100 करोड़ हिन्दुस्तानियों में से आधे तो जरूर हिनहिना चुके हैं। हफ्ता से ज्यादा होने जा रहा है लेकिन दिल की धुकधुकी से हिना का ख्याल नहीं जा रहा है। जनाब बिस्तर पर सोने गये तो भूल गये की बगल में भी पत्नी सोयी है। रात सपने में हिना का नाम बुदबुदाने लगे या फिर यूँ कहिये की हिनहिनाने लगे। पत्नी ने सुना तो सुबह तड़के उठकर हाथों में हिना सजा ली। जनाब के उठते ही मचल उठी की ऐ जी! देखो तो रंग कैसा चढ़ा है हिना का। बेचारे सर पकड़ कर बैठ गये, कैसे कहें कि ये हाथों की हिना नहीं दिल की धुकधुकी में बैठी हिना का रंग उनपर इस कदर चढ़ा हुआ है कि बता भी नहीं सकते।

बात अब छुपाये भी नहीं छुपने वाली जनाब। ये बात किससे छुपी है कि हिन्दुस्तान में अगर किसी को दोजख में भेजने की बददुआ देनी हो रेलगाड़ी की तरह पाकिस्तान भेजने की गाली दे डालते हैं। अब ये पाकिस्तान ने भी बड़ा गजब का पब्लिक डिप्लोमेसी खेला है कि जब से हिना को विदेशमंत्री बना कर भारत में भेजा है पूरा हिन्दुस्तान उन्हे जन्नत ही हूर, चश्मे बददुर बताने पर तुला हुआ है। उधर मोहतरमा कश्मीर और अलगाववादियों को तूल देने में लगी थी। और इधर हम उनपर पुरानी महबूबा की तरह दिल और जान लुटाये फिरते रहे।

यही नहीं विदेशमंत्री कृष्णा साहब ने जब से हाथ मिलाया है हिना से, पूरा हिन्दुस्तान उन्हे कोंसने पर तुला है। जिस किसी ने टेलीविजन पर ये तस्वीर देखी वही जानता है कि कृष्णा देर तक हिना का हाथ पकड़ हिला रहे थे, माफ किजियेगा हिनहिना रहे थे। जैसे बॉलीवुड का हीरो समझ कर गाना गा रहे हों- छोड़ेंगे न तेरा साथ ओ साजन सातो जनम तक। कृष्णा हाथ मिला रहे थे तो जनाब के दिल पर साँप लोट रहा था और पेट में घिरनी नाच रही थी। उसी वक्त एक मित्र ने जल- भुन कर फोन किया कि यार ! ये हिना लगता है कृष्णा से इम्प्रेस हो गयी है। काश! किसी ने बता दिया होता कि कृष्णा के सर पर बाल नहीं बिग है। हद है भाई! अच्छा है की हिना अपने पड़ोस में है, पता नहीं यहाँ होती तो क्या गुल खिलता।

इतना दर्द-ए-दिल दे दिया कि मन यही कहता है कि अच्छा हुआ हिना जो तुम वापस पाकिस्तान चली गयी। ओ हिना! फिर हिन्दुस्तान आना लेकिन इसबार सरहद की दीवार तोड़कर आना, कई दूसरी हिनाओं को लेकर आना और मुहब्बत का पैगाम लेकर आना। तबतक हम तुम्हारा इंतजार-ए-मुहब्बत करेंगे।
(पाकिस्तान की विदेशमंत्री हिना रब्बानी खार के स्वागत में लिखा गया पुराना लेख)