Thursday, December 22, 2011

छोटे राज्यों के गठन को लेकर उभरे सवाल

!!!क्या नीतीश कुमार मगध सम्राट बनेंगे !!!

दो भाईयों के बीच संपत्ति विवाद हुआ। आपस में जमीन- जायदाद का बँटवारा कर लिया। एक ने माँ को रख लिया और दूसरे ने पिता को रख लिया। जब सब कुछ बँट गया तो एक दूधारू गाय बची। एक भाई बेचने के पक्ष में तो दूसरा रखने के पक्ष में था। फिर दोनों के बीच इतनी तनातनी थी कि अगर एक उस गाय को रख भी ले तो दूसरा मुआवजा लेकर शांत हो जाने को तैयार नहीं था। जब सभी हार गये तो दोनों बेवकूफ जिद्दी भाईयों ने उस गाय का बँटवारा अपना दिमाग लगाकर कर लिया। एक भाई गाय के पेट के उपरी भाग का मालिक बन बैठा सोचा कि गाय तो मुँह से ही खाती है और उसके गले की रस्सी हाथ में रहेगी। दूसरा भाई पेट के नीचे के भाग का मालिक बन गया सोचा की दूध निकालेंगे तो खायेंगे और कमाई भी होगी। लेकिन दोनों भाई की मति ऐसी मारी गयी थी कि सहमति और सामुहिक लाभ की भावना जैसी कोई बात उनके बीच नहीं थी। जब एक भाई गाय को खाना खिलाने की कोशिश करता तो दूसरा उसकी पूँछ पकड़ कर हड़का देता और जब दूसरा दुध निकालने की कोशिश करता तो पहला गाय के गले की रस्सी खीचने लगता। कुछ मिलाकर स्थिति ये बनी की गाय ने दूध देना बंद कर दिया और एक दिन उसकी जान चली गयी। फिर लम्बे समय तक दोनों भाई खुद को बड़ा दिखाने और एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में परेशानियों से घिरते चले गये।


ये तो एक महज कहानी भर है पर इसकी चर्चा का संदर्भ इनदिनों देश में छोटे राज्यों को लेकर चल रहे बहस से भी जुड़ा है। भारत की विडंबना ये है कि एक ही देश में जितनी विभिन्नता के तत्व मौजूद है उतना शायद ही किसी और देश में होगी। भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भाषाई, जाति- धर्म, संप्रदाय इन सबके आधार पर लोगों का समूह, आस्था व मान्यता तय है जो बड़े वैचारिक बहस का हिस्सा है। स्पष्ट तौर पर कहे तो रियासतों में बँटे इस देश का एकीकरण भले ही हो गया लेकिन उपराष्ट्रीय भावनायें भारत में अब भी मौजूद है। कई बार ये भावनायें जब उफान मारती है तो नये राज्य की माँग जोर पकड़ने लगती है। इसका एक बड़ा संदर्भ राज्यों के भीतर कई इलाकों में मौजूद क्षेत्रीय विषमता और असंतोष से भी है। 11 साल पहले देश में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन हुआ । इस विभाजन की खास बात ये रही की इन इलाकों की क्षेत्रीय विषमता को लेकर लम्बे समय से चले आ रहे बहस और जन आंदोलन के बाद इन राज्यों का बनाने का निर्णय लिया गया। इसी तरह तेलंगाना राज्य का सपना भी अगर पूरा होता है तो ये जनआंदोलन के दबाव के कारण ही संभव दिखायी देता है।


हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने बहुमत के बूते राज्य के बँटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में सिर्फ 11 मिनट के भीतर पास कर दिया। ये जनता की आकांक्षा को फलीभूत करने की कम और भावी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक पासा फेंकने की कवायद ज्यादा है। उत्तर प्रदेश को चार भागों में बाँटने की मायावती के इस बुलंद हौसले वाले निर्णय की तुलना लालू यादव के सत्ता में काबिज रहने के लिये बिहार बँटवारे के फैसले से की जा सकती है। झारखंड के वजूद की माँग का ऐतिहासिक संदर्भ में महत्व व जरूरत के बावजूद लालू यादव ने कभी भी इसे तवज्जो नहीं दी, खासकर जबतक वे मजबूत बने रहे। लेकिन जैसे ही उनका सामाजिक समीकरण कमजोर पड़ता दिखाई पड़ा, अपनी लाश पर झारखंड बनने की दुहाई देने वाले लालूजी ने पलभर में सहमति दे डाली। भले ही राज्यों का वजूद में आना किसी दल के लिये राजनीतिक पासा हो सकता है लेकिन राज्य के गठन- पुनर्गठन का सवाल क्षेत्रीय- भाषाई- सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा है।


छोटे राज्यों के समर्थन में एक बड़ी दलील क्षेत्रीय आर्थिक विषमता को लेकर है तो दूसरा प्रशासनिक नियंत्रण और शासन के सफल संचालन को लेकर भी है। इन दलीलों पर 11 वर्ष पहले नक्शे पर उभरे राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल का आंकलन करें तो थोड़ी खुशी और बहुत सारे गम जैसे भावना मन में उभरती है। उत्तरांचल ने पर्यटन, बिजली तथा अन्य क्षेत्रों में प्रगति की है जो यहां की पुरानी ऐतिहासिक व भौगोलिक पृष्ठभूमि से भी जुड़ा है। वहीं छत्तीसगढ़ और झारखंड नक्सल गतिविधियों के कारण हाल के वर्षों में ज्यादा चर्चित हुआ। छत्तीसगढ़ में कुछ प्रगति की बेहतरीन कोशिशें हुई है लेकिन झारखंड की वर्त्तमान त्रासदी अफसोस पैदा करती है। इसके कुल 24 जिलों में से कहीं कम-कहीं ज्यादा 22 जिले नक्सल प्रभावित है। इसकी आर्थिक राजधानी जमशेदपुर की विडंबना देखिये तो स्टील सिटी के 5 किलोमीटर के रेडियस में किसी भी ओर जायें तो आमलोगों के चेहरे पर गरीबी का आलम देखा और महसूस किया जा सकता है। छोटानागपुर और संथाल परगना के इलाके में टीनेन्सी एक्ट की धज्जियाँ उड़ाने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं। बड़ी कंपनियों के लिये जमीन का अधिग्रहण हो रहा है जिसमें जनता की आर्थिक भागीदारी और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों को ताक पर रख दिया गया। राजनीतिक उथल-पुथल और प्रशासनिक विफलता ने इस छोटे से राज्य के भीतर क्षेत्रीय असंतोष पैदा कर दिया है और यहाँ से भी नये राज्य की माँग की सुगबुगाहट होने लगी है।


बिहार की बात करें तो यहाँ मिथिलांचल, मगध, अंगप्रदेश व भोजपुर राज्य की माँग यदा- कदा होती रही है। उत्तर प्रदेश को चार भागों- पूर्वांचल, अवध प्रदेश, बुन्देलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश या हरित प्रदेश में विभाजित किये जाने पर राजनीतिक बवाल शुरू है। इधर नीतीश कुमार भी छोटे राज्यों की वकालत कर चुके हैं लेकिन उनकी ये माँग भी गौर करने लायक है कि इन छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुये किसी भी राज्य की विधानसभा में कम से कम 100 सीटों सुनिश्चित किया जाये। उड़ीसा, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भी असंतोष की सुगबुगाहट होने लगी है जो खबरों की सुर्खियों से बाहर है। पश्चिम बंगाल में चौबीस परगना, उड़ीसा के तेलुगु भाषी इलाके, महाराष्ट्र में विदर्भ ये सारे इलाके राजनीतिक असंतोष जाहिर कर रहे हैं। वैसे राज्य विभाजन को लेकर सबसे सुलगता सवाल तेलंगाना की माँग तो केन्द्र के लिये एक चुनौती से कम नहीं है। इसी बीच छोटे राज्यों में भ्रष्टाचार का उदाहरण देखना हो तो उत्तर-पूर्व राज्यों को देखा जा सकता है। एक और दो सासंदो वाले राज्य होने के बावजूद वहाँ नगा, कुकी और अन्य जातीय गुटों के बीच मतभेद और संघर्ष की खबरे हकीकत बताने के लिये काफी है। यहाँ तक की जम्मू और कश्मीर को तीन भागों लद्दाख, जम्मू और कश्मीर घाटी में विभाजन के लिये राजनीतिक सवाल वहाँ के नेता उठा चुके हैं।


अब राज्य बने नहीं की हकीकत में न सही राजनीतिक लतीफेबाजी में मुख्यमंत्री भी बनाये जाने लगे हैं। हुआ यूँ कि एक सज्जन ट्रेन में बैठे बात कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद चार नये बने राज्यों अवध प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड व पश्चिम उत्तर प्रदेश की सत्ता क्रमश: मुलायम सिंह, अमर सिंह, मायावती व अजीत सिंह को मिल जायगी । तो वहीं बैठे एक बिहारी बन्धु ने कहा कि अच्छा है बिहार को भी चार भाग में बाँट दिया जाय तो लालू यादव, रामविलास पासवान, जगन्नाथ मिश्र भी मुख्यमंत्री बन जायेंगे और नीतीश कुमार मगध के सम्राट हो जायेंगे। वहीं बैठे एक कांग्रेसी सज्जन ने तुनकते हुये विरोध किया कि वाह भाई वाह। उत्तर प्रदेश- बिहार को बाँटकर 8 मुख्यमंत्री बने और हमारे हाथ कुछ भी नहीं। सब आपही लोग ले लेंगे तो कांग्रेस क्या बजायेगी झुनझुना।


लतीफेबाजी और राजनीति की लिफाफेबाजी के बीच छोटे राज्यों का मुद्दा एक गंभीर सवाल है जो किसी एक क्षेत्र का नहीं बल्कि राष्ट्रहित से जुड़ा मसला है जिसपर विचार और बहस अविलंब जरूरी है।। सवाल आम जनता के लिये क्षेत्र, भाषा, संस्कृति की अस्मिता का है या फिर आर्थिक विषमता से उपजे असंतोष का है। इन्ही के बीच नेताओं के अपने स्वार्थ में राजनीतिक गोटी फिट करने का भी है। लेकिन एक बड़ा सवाल भारत के अपने एक संगठित राष्ट्र के रूप वजूद का भी है क्योंकि देश सिर्फ सरहद से नहीं इसमें रहने वाली आवाम के जज़्बे, जोश और भावनाओं से बनता है। राज्य विभाजन के लिये वैसे कमीशन पहले भी बने लेकिन देशभर से अलग राज्य की उठती माँग को देखते हुये और जनभावनाओं का ख्याल रखते हुये नये राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना एक बड़ी तात्कालिक जरूरत बन चुकी है।

('मैग्निफिसेन्ट न्यूज' के दिसंबर अंक में प्रकाशित।)

नीतीश सरकार के छह साल और सुशासन के नये जुमले की तलाश

बिहार विकास के मार्ग पर अग्रसर है - आज की तारीख में ये बात बिहार के संदर्भ में सच जरूर मालूम पड़ती है, अगर लालू यादव के दौर की तुलना में कोई बयान जारी करना हो। जाहिर है कि सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार को लेकर हर साल पेश किया जाने वाले आकड़ों की बदौलत राज्य सरकार के हौसले बुलंद नजर आते हैं। सुशासन का जुमला तो पिछले छह सालों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जुबान से फिसल कर मिडिया के सहारे अब लोगों की जुबान पर चढ़ चुका है।


कानून- व्यवस्था के फ्रंट पर नीतीश सरकार ने जनता का वाकई दिल जीता है और लोगों में व्याप्त भय का वातावरण कम है। लेकिन सरकारी आकड़ों में बढ़ता अपराध भविष्य के लिये कई चिंता पैदा करता है। दलित उत्पीड़न और पुलिसिया जुल्म की कई घटनायें खबरों की सुर्खिया बन चुकी हैं तो हत्या, अपहरण, फिरौती और बलात्कार की कई घटनाओं ने जनमानस को झकझोरा है। नये संवेदनशील डी.जी.पी. अभयानंद की छवि और मेहनत को लेकर बेहतर उम्मीद सभी को है।


सड़क को लेकर राज्य सरकार ने काम बेहतर किया है तो बिजली के क्षेत्र में वर्त्तमान की चिंता बनी हुई है। वैसे भविष्य के लिये बहुत थोड़ी सी उम्मीद बँधती दिखाई देती है। बियाडा जमीन विवाद ने राज्य सरकार की औद्योगिकरण नीति पर सवाल खड़ा किया है और निवेश का जमीनी धरातल पर उतरना बहुत संभव नहीं हो पाया है। पलायन को लेकर सरकार के दावे में या फिर आकड़ों में बहुत दम नहीं दिखाई देता है। दशहरा, दिवाली और छठ के अवसर पर देशभर में बिहारियों के पलायन और विस्थापन की त्रासदी का सहज अनुभव किया जा सकता है।


शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नये संस्थानों का खुलना बेहतर संकेत है लेकिन पुराने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय कॉलेज, शोध संस्थान ध्वस्त पड़े हैं। राज्य के सभी विश्वविद्यालय- कॉलेज में 50 फिसदी शिक्षकों की कमी है तो सरकार इस टोटे को रेशनलाईजेशन प्रक्रिया की खानापुर्ति से निपटना चाह रही है। शिक्षकों के वेतन, पेंशन, प्रोमोशन के मामले के बीच छठे वेतनमान को लेकर तमाम विसंगतियों से शिक्षक जुझते नजर आते हैं। वहीं यू.जी.सी. के निर्देशानुसार उम्रसीमा 65 किये जाने के लेकर सरकार गेंद कोर्ट के मामले या फिर राजभवन पर की ओर उछाल देती है। एकेडमिक सेशन के नाम पर सिर्फ परीक्षाएं सही समय पर लेने की खानापूर्ति की जाती है जबकि पढ़ाई के मामले में राज्यभर के विश्वविद्यालयों में कमोबेश एक ही तरह की तस्वीर नजर आती है। लिहाजा अच्छी शिक्षा के लिये राज्य के बाहर जाने वाले का सिलसिला थमता नजर नहीं आता है।


प्राथमिक, और माध्यमिक शिक्षा गुणवत्ता की मार झेल रहा है। बिहार सरकार ने हाल ही में राहत की साँस ली जब सुप्रीम कोर्ट ने 34, 540 शिक्षकों की नियुक्ति के लिये वरीयता सूची को हरी झंडी दे दी। अब शिक्षक पात्रता परीक्षा की प्रक्रिया के तहत बेहतर शिक्षकों की उम्मीद कुछ बँधती है। पूर्व में सर्टिफिकेट जमा कर नियुक्त शिक्षकों की परीक्षा लेकर सरकार ने पात्रता सुनिश्चित कर दी है। अब उनकी ट्रेनिंग की व्यवस्था कर दी जायगी। लेकिन इन शिक्षकों में अधिकांश के ज्ञान और विद्वता की मार बिहार के सरकारी स्कुलों के बच्चे आने वाले दशकों तक भुगतेंगे। वैसे इस मामले में भी संभावनाओं की सरकारी तस्वीर सिर्फ कागजी सुकून भर देती है।


स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार के प्राथमिक केन्द्रो में जान फूँकने की बेहतरीन कवायद हुई है। अस्पतालों में कुछ दवायें जो मुफ्त में मिलनी शुरू हुई थी उसपर ग्रहण भी लगता दिख रहा है, इसकी बानगी पी.एम.सी.एच. में भी देखी जा सकती है। पटना के एम्स का इंतजार सबको है तो आई.जी.आई.एम.एस. को उत्कृष्ट बनाने की कवायद में भी वक्त लग रहा है। इमरजेन्सी में आज भी मरीजों को बिहार के दुसरे कोने से पटना भेजने की परंपरा जारी है। स्पष्ट है की प्राथमिक केन्द्रों को छोड़ दें तो पटना के बाहर उत्कृष्ट स्तर की सुपर स्पेशलिटी स्वास्थ सुविधाओं की कमी से लोगों की मौत का सिलसिला जारी है।


केन्द्र सरकार और विपक्ष के निशाने पर ग्रामीण विकास विभाग की योजनाये मनरेगा, इंदिरा आवास रही हैं। युवा मंत्री नीतीश मिश्र की तरफ के कई बेहतर प्रयास किये गये है ताकि अनियमितताओं को रोका जा सके। सफलता भी मिली है लेकिन नीचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के घुन ने आम जनता को तबाह कर रखा है। इसी तरह का कुछ प्रयास खाद्यान्न व उपभोक्ता विभाग में किया गया है। गैस की बुंकिग और कालाबाजारी पर कुछ हद तक अंकुश लगा है, जनवितरण व्यवस्था में जी.पी.एस. जैसे तकनीकों के इस्तेमाल कर बेहतर बनाने की कोशिश जारी है। कृषि योजनाओं और तकनीकों को लेकर जनता के बीच सरकार ने जागरूकता बढ़ाने का काम बखूबी किया है। लेकिन बाढ़ और सुखाड़ झेलने को त्रस्त जनता उत्पादन और लागत के बीच के अंतर को मुनाफे में तब्दील नहीं कर पा रही है।


राजधानी पटना में मिडिया की तमाम सुर्खिया बटोर रही सरकार से महज से लगभग 10- 15 किलोमीटर दूर मनेर प्रखंड में आम जनता सरकार की उपलब्धियों के लिये पूरे नंबर देने को तैयार नहीं दिखी। लोग कई मामलों में नीतीश कुमार की व्यक्तिगत प्रशंसा भले करते हों लेकिन उनके सरकार के प्रशासनिक पदाधिकारियों के प्रति अच्छी राय नहीं है। आम जनता मानती है राजधानी पटना और कुछ जिला केन्द्रों को छोड़ दें तो अनुमंडल, प्रखंड, अंचल कार्यालय भ्रष्टाचार के मामले में चारागाह बन चुके हैं। बिजली संकट के दौर में डीजल कुपन किसानों तक पहुँचती इससे पहले प्रखंड कार्यालय से ही गायब हो गयी। खाद, बीज वितरण में सरकारी प्रयोग के बावजूद किसान संतुष्ट नहीं दिखते हैं। हाल ही में आये बाढ़ में सरकारी कागजों में अनेक नाव चलते रहे और राहत भी बँटे पर हकीकत में पिड़ितों तक नहीं पहुँचे। आम जनता की प्रखंड कार्यालयों और थानों के बारे में राय सिर्फ अफसोसजनक है। ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य के मुखिया के तमाम वादे और नेक इरादे जिसकी गूँज जनता के कानों तक पहुँच रही है, अधिकारियों के कानों में उसकी जूं भी नहीं रेंगती।


मनेर से आगे बढ़े तो बिहटा प्रखंड का इलाका है जो पटना राजधानी से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ राज्य सरकार ने तकरीबन 2200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया है। इन्ही जमीनों पर आई.आई.टी. के अलावा कई दूसरे शिक्षण संस्थान और उद्योग खुलने हैं। स्थानीय किसानों से बातचीत करने पर पता चलता है कि अधिग्रहण में कई तरह की अनियमिततायें सामने आ रही हैं। जमीन के मुआवजे की राशि में अंतर है तो कई लोगों की जमीन का बड़ा भूखंड अधिग्रहित कर कुछ डिसमिल जमीन बाहर कर दिया गया है। इन जमीनों पर आश्रितों की सूची स्पष्ट तौर पर सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया है और न ही अधिग्रहण कानून के मुताबिक इन लोगों का राहत राशि और सहायता दी गई है। तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद के उद्घाटित राजेन्द्र गौशाला की करीब 70 एकड़ जमीन एच.पी.सी.एल. को दी गई है, लेकिन इस जमीन पर करीब 50 सालों से खेती कर जीवन- यापन कर रहे 40 से अधिक परिवारों को विस्थापित कर दिया गया है। यही हाल बिहटा चीनी मिल का है जिसे फिर से स्थापित करने की कोशिश के बजाय दूसरे कारखानों के लिये परिसर मुहैया कराया जा रहा है। जबकि इस चीनी मिल के विस्थापितों को नये खुले कारखाने में समायोजन की नीति स्पष्ट नहीं की गई है। इन्ही इलाकों में करीब 7-8 कारखाने खुले है जिनमें स्थानीय भूमि विस्थापितों की स्थायी नौकरी की गारंटी नहीं है। वर्त्तमान में ये सारे आकड़ों के लिहाज से सुखद एहसास दे रहे हों लेकिन भविष्य में इन इलाकों में उत्पन्न होने वाली आर्थिक विषमता सामाजिक असंतोष का कारक बनने जा रही है। इन उदाहरणों से लगता है कि राज्य की अर्थव्यवस्था को कायापलट करने और औद्योगिकरण की नीति में स्थानीय लोगों की अर्थव्यवस्था में भागीदारी की गारंटी नहीं है।


हाल ही में आये नये आँकड़े के अनुसार राज्य में विकास दर की रफ्तार 14 फीसदी है वहीं दूसरी हकीकत ये भी है कि कृषि का विकास दर ऋणात्मक में है जिसपर राज्य की 70 फीसदी से ज्यादा आबादी आश्रित है। इस बार सी.ए.जी. रिपोर्ट में उजागर की गयी खामियाँ अब सरकार और जनता के जेहन से विस्मृत हो चुकी हैं लेकिन हर विभाग में सरकारी योजनाओं में अनियमितता का खुलासा प्रशासनिक कार्यशैली की विफलता की ओर इंगित करता है।


सरकार के दावे, उनकी हकीकत, आरोप- प्रत्यारोप की राजनीति के बीच विपक्ष की उपस्थिति बिहार विधान सभा में कमतर तो है ही, सड़कों पर भी इनकी मौजूदगी अवसर और परिस्थितियों की मोहताज हो चुकी है। राम विलास पासवान औऱ लालू प्रसाद यादव पटना में जनता के बीच सक्रीय होने के बजाय दिल्ली दरबार को खुश करने में ज्यादा मशगूल है। जाहिर है की एल.जे.पी. और आर.जे.डी. ने नेताओं और समर्थकों की मायूसी समझी जा सकती है। कुंद धार विपक्ष के कारण एक ध्रुवीय सी लग रही राज्य में राजनीति का पलड़ा नीतीश कुमार की ओर ही झुका हुआ है। ये एक बड़ा कारण है कि वर्त्तमान में बिहार की राजनीति का तथ्यपरक विश्लेषण यानि वैल्यू जज़मेंट संभव नहीं दिखता है।


बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के कालाधन विदेश से वापस लाने और जनलोकपाल कानून लागू करने के अभियान के दौर में बिहार सरकार ने भी भ्रष्टाचार विरोधी अभियान छेड़ रखा है। सेवा का कानून लागू होने के बाद जनसुविधाओं में बेहतरी की गुंजाईश की जा रही है। सरकार की जीरो टोलेरेन्स नीति के बावजूद नीचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार की चर्चा जो आम जनता के बीच है शायद नीतीश कुमार जी के कानों तक भी पहुँच रही होगी। इन तमाम चर्चाओं के बीच बिहार सरकार अपनी दूसरी पारी का एक साल पूरा करने जा रही है। 24 नवम्बर को नीतीश सरकार की दूसरी पारी का एक साल पूरा होने के काफी पहले से ही सभी मंत्रालयों और सरकारी महकमों में उपलब्धियाँ जुटाने और गिनाने की होड़ लगी हुई है जो जनता के सामने पेश किया जायगा। कोई शक नहीं की एक साल की उपलब्धियाँ जब जनता के सामने रंगीन कलेवर में पेश होंगे तो सरकार के हौसले कुछ ज्यादा बुलंद हो चुके होंगे और संभव है विपक्ष कुछ और हाशिये पर जाता दिखेगा।


किसी ने भी अगर गौर किया हो तो नीतीश सरकार के पहले कार्यकाल में शासन की विफलता का ठीकरा लालू यादव और उनकी सरकार पर फूटता रहा तो इस दूसरे कार्यकाल के शुरू होते ही निशाना केन्द्र सरकार बनी। अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर राज्यभर के दौरे पर निकले हैं। तय है कि जब ये दौरा पूरा होगा तो सुशासन का नया जुमला गढ़ा जा चुका होगा। राजनीति की मजबूरी है कि एक जुमले से ज्यादा दिन तक काम नहीं चलाया जा सकता, जाहिर है कि नये नारे और प्रतीकों की तलाश बिहार सरकार को होने लगी है।

('मैग्निफिसेन्ट न्यूज' के नवंबर अंक में प्रकाशित )