Monday, January 26, 2009

निजी पहचान का संकट

वह है या नही / क्या फर्क है इनमे / एक मृगतृष्णा की तरह वह दूर नज़र तो आती है पर ज्योंही पास जाता हूँ, जाने कहाँ खो जाती है/ और फ़िर मरुस्थल के भटकते राही की तरह प्यासा ही दम तोड़ देता हूँ/ यहाँ दो तरह की अनुभूतियाँ विद्यमान है / हो सकता है की बात साहित्यिक कम और दार्शनिक ज्यादा लगे परन्तु यथार्थ से शायद ही कोई इन्कार करे /

एक औरत ( ज़ाहिर हैं खुबसूरत सी !) की मांग में सिन्दूर का होना या होना- फर्क है / अगर मांग भरी है तो ज़ाहिर है शादी- शुदा होगी / पर अगर मांग सूनी है तो बात गंभीर हो जाती है क्योकिं वह कुवांरी, विधवा या परित्यक्ता -इन तीनों मे से कोई भी हो सकती है / यहाँ सिन्दूर का महत्व बड़ा ही 'प्रतीकात्मक' है / यही कारण है की युवतियाँ कुछ भी पहन ले, कम पहने या के बराबर पहने; सिन्दूर तो भूले से भी नही लगाती / यों आजकल 'फेमिनिज्म' का विचार तेजी से प्रचलन मे आया है सो औरतों का सिगरेट या शराब पीना भी कोई बहस का मुद्दा नही रहा / 'पेज थ्री' पार्टियों के अख़बार और टेलिविज़न की सुर्खियों को देखकर तो ऐसा ही लगता है /

अब तक के पाँच हज़ार सालों के पुरूष प्रधान वर्ण व्यवस्था पोषक सामंती समाज में महिलाओं का खूब जमकर शोषण हुआ है जो अब तक जारी है / महिला होना ही पैदाइशी संघर्ष का दूसरा नाम है और जो महिला होने के साथ दलित या पिछड़े जाति- वर्ग से आती हैं, उनकी पीड़ा तो अवर्णनीय ही है / जहाँ तक आज का सन्दर्भ है, नीतिगत तौर पर तो बड़े परिवर्तन आए हैं परन्तु नियति के तौर पर कोई ख़ास परिवर्तन हमारे समाज मे अभी तक नही पाया है / मर्द भी 'फ्लर्ट' होते जा रहे हैं वहीँ महिलाओं ने भी कमसिन हसीन दिखने की कोशिश में जहाँ एक ओर कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधनों का लबादा ओढा, 'मिनी' और 'माइक्रो' को भी प्रचलन में लाया /

यहाँ उपर्युक्त सन्दर्भ में महिलाओं को उनके पहनावे को लेकर कोई आपत्ति नही प्रकट की गई है वैसे भी ये उनके निजी स्वतंत्रता का सवाल है / पर एक बात जरूर कहना चाहूँगा की परिवर्तन अगर स्वाभाविक हो और उसका आधार वैचारिक हो तो हमें किसी भी बदलाव का सम्मान करना चाहिए / पर इस तेज परिवर्तन वाले 'ग्लोबलाइजेशन' के दौर में जब पश्चिमी सभ्यता का अचानक प्रकोप बढ़ता जा रहा है; इस तरह का सांस्कृतिक पलायन अवश्य ही चिंता का कारण हो सकता है / लेकिन इससे अछूता रहना भी मुश्किल है /

विदेशी पूँजी निवेश के बाद देश की आर्थिक तरक्की के चाहे लाख आंकड़े- दावे पेश किए जाएँ इस समाज की मूल हकीक़त तीन सामाजिक सन्दर्भों में अन्तर्निहित है - पहला, गैर संगठित कृषक समाज / दूसरा, दलित पिछड़ा समाज / और तीसरा, आधी आबादी यानि महिला समाज / इन तीन वर्गों के हक़- हकूक और तरक्की सुनिश्चित किए बिना किसी भी विकास की बात सिर्फ़ बेमानी है / बात चूँकि यहाँ महिलाओं की हो रही है, ये हमें मान लेना चाहिए की औरतों को सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक बराबरी का सवाल महज किट्टी पार्टी सर्कल व "शहरी- संभ्रांत- परकटी" महिलाओं का हथकंडा भर नही रह गया है / ये बात पचास फीसदी आबादी का भी सवाल है, इन्हे अधिकार देने की बात से किसी को ऐतराज़ हो अफसोसजनक है, हाँ ! आप बराबरी दिए जाने के तौर तरीके जो नीतिगत मसला है उसपर भले ही उंगली उठा सकते हैं /

साफ़ साफ़ शब्दों मे कहें तो बात ये भी है की जब संपूर्ण जनसंख्या का आधा भाग महिलाओं का हो, उनके व्यवहारिक और वैचारिक परिवर्तन को हल्के से नहीं लिया जा सकता है / स्पष्ट है की इस परिवर्तन की जरूरत उनके निजी पहचान को लेकर विभिन्न स्तरों पर हो रहे संघर्ष का स्वाभाविक परिणाम है क्योंकि ये वही आधा भाग है जिसके बिना 'अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना तो सम्भव है ही नहीं, सृष्टि संकट अवश्यम्भावी है /
(नोट- चित्र http://www.milonm.com/से साभार ।)

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