Sunday, November 16, 2014

नियोजित शिक्षकों के संदर्भ में बिहार की शिक्षा का सवाल



तात्कालीन सामाजिक- राजनीतिक संदर्भ में देखें तो बिहार में 1990 से 2005 और 2005 से 2015 तक का कालखंड शायद शिक्षा के लिहाज से निरंतर निम्नतर प्रगति का काल माना जा सकता है। अगर पहले से गिरावट चली आ रही थी तो इस कालखंड में बिहार की शैक्षणिक स्थिति में सुधार की बजाय गिरावट का पैमाना खासतौर से देखा जा सकता है जिसे रोकने व बेहतरी का प्रयास वाकई में राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ नहीं किया गया। इस वर्तमान स्थिति को देखने के बाद बिहार की राजनीति का बहुत निष्पक्ष और तथ्यपरक विश्लेषण करें तो आजादी के बाद से लेकर अबतक शिक्षा को लेकर बहुत आदर्शवादी स्थिति कभी भी रही होगी इसपर भी संदेह होने लगता है। ऐसे में 1990 के पूर्व के कालखंड में शिक्षा को लेकर प्रगति के बारे में भी बहुत ज्यादा बहस की गुंजाइश नजर आती है।
शिक्षा की बात जब भी चलती है तो अक्सर लोगों को ध्यान उच्च एवं उच्चतर शिक्षा की ओर जाता है जो शिक्षा पर बहस के मुख्य केन्द्र बिंदू बनते रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा जो कि पूरी शिक्षा व्यवस्था के लिये रीढ़ का काम करते हैं उसपर कम बहस होता रहा है। लेकिन सर्वशिक्षा अभियान या फिर साक्षरता मिशन जैसे कार्यक्रमों के महत्व में आने के बाद प्राथमिक शिक्षा का सवाल ज्यादा प्रासंगिक हुये हैं। यह बात बौद्धिक- अकादमिक विमर्श से परे आम जनता की शैक्षणिक जरूरतों और सरकार की शिक्षा को लेकर प्राथमिकताओं के संदर्भ में ज्यादा बेहतर तरीके से समझी जा सकती है।


फिलहाल लालू प्रसाद के 15 सालों की चर्चा न करें तो भी नीतीश कुमार एवं उनके द्वारा संचालित सरकार के 9 साल पूरे हो चुके हैं। अब इन 9 सालों के बाद शिक्षा की कुव्यवस्था का ठीकरा पिछली सरकार पर फोड़ने की बजाय वर्तमान की सरकार पर जिम्मेदारी तय करने की बनती है। आज भले ही दोनों बड़े भाई व छोटे भाई साथ हो लेकिन गौरतलब है कि यह वर्तमान की जे.डी.यू. सरकार अपने से पूर्व के 15 सालों को जंगलराज बताती रही है और खुद के सुशासन का दावा करती रही है। फिर कोई सुशासन का दावा करने वाली सरकार किसी तथाकथित जंगलराज का पर्याय बन चुके राजनीतिक दल के साथ गठबंधन कैसे कर सकता है? दिलचस्प यह है कि छोटे भाई ने ही बड़े भाई के खिलाफ जंगलराज का जुमला गढ़ा पर अब एक साथ आ गये है तो सवाल उठता है कि आखिर किस मुद्दे, एजेन्डे या उद्देश्य को लेकर इन दोनों की सहमति है? क्या शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास, उद्योग के सवाल को लेकर साथ हैं? या फिर नीजी या पारिवारिक साख बचाने की मुहिम को मोदी विरोध के नाम का मुखौटा पहनाया गया है
अगर बिहार में वाकई सुशासन है तो आर्थिक कुप्रबंधन कैसे है जिसका हवाला पिछले 8-9 सालों के सी.ए.जी. रिपोर्ट के अध्ययन से स्पष्ट पता लगता है और फिर शैक्षणिक अराजकता का माहौल कैसे है? देश- दुनिया में आंकड़ों की बाजीगरी की बदौलत वर्त्तमान सरकार ने चाहे जितनी भी ब्रांडिंग की हो लेकिन स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी तमाम सवालो के बीच सिर्फ शिक्षा का सवाल अकेले इतना भारी है जो बिहार में कुशासन का सबसे बड़ा प्रमाण कहा जा सकता है। बिहार सरकार के शिक्षा को लेकर सार्वजनिक किये गये आंकड़ो पर भी सवाल खड़ा होता है क्योंकि किसी भी बड़े निष्पक्ष अध्ययन, सर्वे या रिपोर्ट में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन की बात नहीं की गई है। साईकिल, पोशाक, स्कॉलरशिप योजना- जिसकी दुहाई दी जाती थी, उसमें तमाम अनियमितताओं के बाद लाभान्वितों के नाम पर फर्जीवाड़ा सामने है। प्रारंभिक सफलता के बाद ये योजनायें भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ चुकीं हैं। जब भी इन योजनाओं के तहत साइकिल- पोशाक- छात्रवृति का बँटवारा करने की बात आती है बिहार भर के तमाम स्कुलों में हंगामे, तोड़फोड़, शिक्षकों के खिलाफ आक्रोश- मारपीट की खबर सुर्खियों में होती है। मिड-डे मिल योजना पिछले 9 सालों में व्यवस्थित नहीं हो सकी और किसी भी स्तर की शिक्षा में गुणवत्ता के दावे ने दम तोड़ दिया है। जाहिर है कि ड्रॉप-आउट की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। शिक्षा के आकड़ों पर सवाल इसलिए भी उठाना लाजिमी है कि स्कुलों के रॉल या अटेन्डेन्स रजिस्टर में फर्जी नामों की खानापूर्ति की जा रही है। एक ही बच्चे का नाम कई स्कुलों में है या फिर उनका नाम दर्ज है जो वास्तव में हैं ही नहीं। यानि की योजनाओं में भ्रष्टाचार के पोषण के लिये अधिकारियों के मिलीभगत से झूठे नाम दर्ज किये जा रहे हैं साथ ही सरकार के दावे एवं हवाई मानदंड को पूरा दिखाने के लिये ये फर्जीवाड़ा उपरी संरक्षण में चल रहा है। लेकिन यहां पर भी शिक्षक कम दोषी एवं दबाव में ज्यादा नजर आते हैं और व्यवस्था एवं उसके संचालन करने वाले नेता- अधिकारी ज्यादा बड़े आरोपी हैं।  
इनदिनों बिहार में नियोजित शिक्षकों का एक बड़ा हुजूम खड़ा हो गया है जिनकी कुल संख्या लगभग 4 लाख होगी। इन शिक्षकों को लेकर बिहार की आम जनता से पूछें तो धारणा बहुत स्पष्ट नहीं है- न तो पक्ष में न ही विपक्ष में। इन नियोजित शिक्षकों की नियुक्ति से अबतक एक बड़ा वक्त गुजर चुका है जिसमें सरकार ने नौकरी देकर अहसान करने वाली अपनी छवि गढ़ी तो इन नियोजित शिक्षकों की छवि बेचारों की गढ़ दी गई। यानि की एक ऐसे युवाओं की छवि जो बेकार, बेरोजगार सड़कों पर मारे फिर रहे थे जिनको कोई पूछने वाला नहीं था, जिनकों कहीं नौकरी नहीं मिलती उन्हे सरकार ने नौकरी दे दी। फिर नीतीश शासन के शुरूआती दौर में जब ये नियुक्तियाँ शुरू हुई तो मिडिया ने सरकार के भाँट- चारण के तौर पर सरकार की चापलूसी में इन नियुक्तियों को बहुप्रचारित कर बड़े सवालों को गौण कर दिया। समय के अंतराल में जब परते खुलती जा रही है तो सवाल उभरते जा रहे हैं। नियोजित शिक्षकों के पक्ष में सबसे बड़ा मुद्दा है - मानव अधिकार के तहत समान काम के लिये समान वेतन का नैसर्गिक न्याय - जिसकी रक्षा भारत का संविधान भी करता है।  एक समाजवादी आदर्शों का दावा करने वाली सरकार से लोकतंत्र में इनकी माँग कोई नाजायज नहीं है और न ही अनैतिक है लेकिन इन शिक्षकों के साथ लगातार सरकार-प्रशासन-पुलिस का रवैया बहुत ही ज्यादा आपत्तिजनक है। जिस तरीके से इनकी माँगों को सरकार लगातार रिस्पॉन्ड कर रही है वह बड़ा ही शर्मनाक है। एक दौर में नीतीश कुमार तो इन शिक्षकों को सार्वजनिक मंच से धमकी तक दी थी और जहाँ कहीं भी नीतीश जी की सभा होती शिक्षकों को वहाँ पहुचने से रोकने के लिये तमाम तरीके पुलिस- प्रशासन अपनाती थी।
 
हाल ही में 3 सितम्बर, 2014 को पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में एक शिक्षक अदालत का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में बिहार भर से 8 से 10,000 नियोजित शिक्षक पटना पहुँचे थे। इसी जगह पर अक्सर राजनीतिक कार्यक्रम होते रहते हैं जिसमें भीड़ जुटाई जाती है परन्तु उपस्थित शिक्षक समूह और उनके जोश-जज्बे-तेवर को देखकर एक बात जेहन में आई कि बिहार का यह एक बहुत बड़ा सोशल- पॉलिटिकल युवा समूह है जिसमें बड़ी क्षमता है। इस बड़ी ताकत का सकारात्मक इस्तेमाल बिहार में बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करने में जरूर की जानी चाहिये। इस कार्यक्रम के अगले दिन के अखबारों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि शिक्षा के सवाल को लेकर बिहार की मिडिया का रूख क्या है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, आज- अखबार ने इस खबर को अच्छी-बुरी जो भी हो कवरेज दी। लेकिन प्रभात खबर में एक शब्द भी नहीं छपा वहीं दैनिक हिन्दुस्तान में इस खबर को संक्षिप्त खबरों की तरह मुद्दे गौण करके छापा गया। सवाल है कि कोई भी 8-10 हजार का सामाजिक समूह जो लोकतंत्र में शिक्षा या आवाम से जुड़े किसी खास मुद्दे को लेकर एकजुट होता हो सभा या प्रदर्शन के लिये उसको मीडिया कैसे खबरो में जगह देने से वंचित रख सकती है और खबरो में जगह पाने से इन समूह या मुद्दों को कैसे खारिज कर सकती है। जस्टिस काटजू ने कुछ वर्ष पहले अगर कहा कि बिहार में मीडिया सेन्सरशिप है तो उसपर सत्ता से जुड़े लोगों ने कड़ा विरोध जताया लेकिन बिहार की मीडिया का तथ्यपरक विश्लेषण करें तो काटजू साहब के बात की सत्यता या पेड न्यूज की बात आज भी कई अखबारों के संदर्भ में सिद्ध की जा सकती है। पटना की कई घटनाओं, धरना या प्रदर्शन की खबर कई अखबारों के पटना संस्करण में नहीं छपती है लेकिन दूसरे जिलों के संस्करण में छपती है। कोई खबर किसी संस्करण में पहले पन्ने की सुर्खियाँ बनती है तो दूसरे संस्करण में नदारद है। इसी तरह हत्या, बलात्कार जैसी घटनाओं और बिहार भर में चल रहे जनहित से जुड़े आन्दोलनों को लेकर भी बिहार के अखबारों का यही रवैया है। विभिन्न संस्करणों वाले ये अखबार सरकार के पक्ष में खबरों की बैलेंसिंग करते नजर आते हैं। उदाहरण के लिये अगर भागलपुर या मोतिहारी में बलात्कार की नृशंस घटना घटती है तो क्या वह पटना या गया के लोगों के लिये पॉलिटिकल ओपिनियन बनाने के लिहाज से मायने नहीं रखती है? सूचना क्रांति के दौर में जनहित से जुड़े मुद्दे पर सूचना के प्रवाह को रोकने और सरकारी भोंपू के तौर पर मीडिया के इस्तेमाल किये जाने के उदाहरण लोकतंत्र में एक साजिश से कम नहीं है। इन सारे अध्ययनों के बाद अब अखबारों के सलेक्शन को लेकर भी जनता को जागरूक होने की जरूरत है कि अखबार क्या पढ़ाना चाहते हैं, अखबार क्या लिखता- छापता है,  कहीं अखबार सरकार या किसी इन्ट्रेस्ट- लॉबी ग्रुप का भोंपू बनकर अनर्गल की बातें हमारे मन- मस्तिष्क में प्रवाहित करना- घुसेड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहा है? साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि हम क्या पढ़ना चाहते हैं, हमारे सामाजिक – राजनीतिक हित क्या है, हमारे जनहित के मुद्दों से जुड़े संघर्ष, आन्दोलन पर अखबार का रूख पक्षपाती तो नहीं है? लोकतंत्र में यह अब काफी महत्वपूर्ण हो गया है जिसको लेकर बिहार की जनता को भी शीघ्रता से जागरूक होने की जरूरत है अन्यथा गलत-अनर्गल और दूसरों के पक्ष- हित की बात पढ़ते- लिखते- सुनते एक दिन हम सभी दूसरों के प्रचारक बनकर घुमते नजर आयेंगे और हमारे अपने हक- हकूक की बातें गौण हो जायेंगी। देशभर में ऐसी कई घटनायें भी सुनने में आयी हैं जहाँ जनहित के मुद्दे पर अखबारों के घोर पक्षपाती रूख से तंग आकर लोगों ने सामुहिक तौर पर अखबारों की प्रतियाँ खरीद कर अर्थी जुलूस निकालते हुये सार्वजनिक तौर पर जलाने का काम किया है। जाहिर सी बात है कि अखबार जलाने की खबर ये अखबार खुद क्यों छापेंगे भला क्योंकि ये अपनी भद खुद पीटवाने जैसी बात है। लोकंतंत्र में सूचना प्रवाह को बाधित करने की साजिश के खिलाफ यह भी एक रास्ता अख्तियार करना चाहिये या फिर उक्त अखबार के सामुहिक विरोध या बहिष्कार का निर्णय भी लेना चाहिये। साथ ही सोशल मीडिया को ज्यादा से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराकर अपने लोगों के बीच संवाद का एक माध्यम तैयार करना चाहिये।
 
यह पूरी बातें नियोजित शिक्षकों के सवाल पर हो रही है और इसमें कोई शक नहीं कि ये शिक्षक बिहार सरकार की गलत शिक्षा नीति व युवा नीति का शिकार होकर असंतुष्ट जीवन जीने को मजबूर है। ये लोग स्कुलों में काम सरकारी शिक्षकों के बराबर ही करते हैं लेकिन माथे पर इनके नियोजित का ठप्पा चस्पा कर दिया गया है। वेतन इतना की अपनी पत्नी, बच्चे, माँ- पिताजी, परिवार की नजरों में नौकरी करते हुये बेकार हैं। घर- परिवार में कोई बीमार पड़ जाय, अपने बच्चों को उच्च व अच्छी शिक्षा देना हो, फिर बेटी की शादी करनी हो या सगे- संबंधियों का न्यौता वगैरह करना हो तो कमर टूट जायगी – सूदखोर की शरण में जाना पड़ेगा। कई लोग यह कहते हैं कि सरकार ने इनकी ठेकेदारी तो नहीं ले रखी है, सरकार की शर्तों पर इन शिक्षकों ने नौकरी ज्वायन की तो अब फिर ये नखरा क्यों? सवाल समान काम के लिये समान वेतन पाने के अधिकार का है और एक सरकारी निकाय में काम करने वाले लोगों के मानवाधिकार का है। क्या सरकारी निकाय जिसमें शिक्षा शामिल है- नीजी फैक्ट्रियों के बंधुआ मजदूरों की तरह संचालित होगें? फिर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत सुविधाओं की गुणवत्ता क्या सरकार की जिम्मेदारी इस लोक कल्याणकारी राज्य में नहीं होनी चाहिये? आश्चर्य होता है कि शिक्षकों के पक्ष से उठे सवाल पर गंभीरता से सार्वजनिक बयान सरकार ने कभी नहीं दिया बल्कि इन शिक्षकों को ही फर्जी और निकम्मा घोषित करने में लगी रही है। बिहार में चल रहे तमाम सरकारी योजनाओं, केन्द्रीय योजनाओं में जितने भ्रष्टाचार के कारण लिकेज है और फिर जितने पैसे विभिन्न विभागों के बजट वर्ष में खर्च न कर पाने के कारण केन्द्र को लौट जाते हैं उनका निष्पक्ष हिसाब करें तो 4 लाख क्या 10 लाख नये शिक्षकों को बिहार सरकार पूर्ण वेतन दे सकती है। आंकड़ों में हम न उलझते हुये सीधी बात करें तो लालू प्रसाद- राबड़ी देवी के शासन से अब नीतीश कुमार- जीतनराम माँझी के शासन काल तक केन्द्र से बिहार को मिलने वाले वार्षिक राशि में करीब कई गुणा इजाफा हो चुका है। फिर केन्द्रीय योजनाओं जिसमें शिक्षा को लेकर भी कई योजनायें हैं जिनसे को मिलने वाली राशि का आंकलन करें तो बिहार सरकार को पैसे की कमी का रोना बंद कर देना चाहिये, यह सीधे तौर पर आम जनता को झाँसा देने और बरगलाने वाली बात है।

बिहार की आवाम का 89 फिसदी छात्र इन सरकारी शिक्षण संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण करते हैं। इन स्कुलों में शिक्षकों के बहाली की नीति का निर्धारण तो सरकार ने अपने शर्तों पर किया, गुणवत्ता के सवाल पर सरकार ने कोर्ट में भी अपने नियुक्त शिक्षकों के गुणवत्ता पर उत्तम कोटि के होने की बात स्वीकार की और दक्षता परीक्षा की खानापूर्ति का तरीका अपनाया ताकि अपने नवनियुक्त शिक्षकों के दक्ष व गुणवत्ता पर खड़े होने का दावा आधिकारिक तौर पर कर सकें। लेकिन हास्यास्पद यह है कि इन्ही शिक्षकों को अपने घर में बिहार के मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री, अधिकारी अनेक जुमलों का प्रयोग कर हीनता- दीनता का एहसास कराते रहते हैं। यह बिहार सरकार की दोमुँहा नीति ही कही जा सकती है। टी.वी. मीडिया ने भी यदा- कदा किसी शिक्षक के मुँह में माइक ठूँसकर एक सवाल या स्पेलिंग पूछा और बारंबार दिखाकर समूचे नवनियुक्त शिक्षकों को देश-दुनिया में नाकाबिल घोषित करने का प्रयास किया है। मीडिया की ये खबरें सही होते हुये भी संदर्भ गलत है क्योंकि समूचे शिक्षक वर्ग जिनकी संख्या बिहार में 5 से 5.5 लाख होगी इनको उपहास का पात्र बनाना सही नहीं है। अगर ऐसे ही अंग्रेजी का स्पेलिंग टेस्ट या फिर जेनरल नॉलेज का सवाल ज्ञान का मानक है तो बिहार के तमाम नेताओं, ब्यूरोक्रेट, मीडिया कर्मियों और नियोजित शिक्षकों का एक सामुहिक सामान्य ज्ञान व अंग्रेजी ज्ञान परीक्षण प्रतियोगिता आयोजित की जानी चाहिये। इसमें शक नहीं कि कई ऐसे महाज्ञानी नेता, ब्यूरोक्रेट, पत्रकार होंगे जो नियोजित शिक्षकों से नीचे का अंक व स्थान प्राप्त करेंगे क्योकि इन्ही नियोजित शिक्षकों के बीच से लोग इनदिनों देशभर की विभिन्न प्रतियोगिताओं में चुने जा रहे हैं जिनमें केन्द्रीय (यू.पी.एस.सी.) व बिहार (बी.पी.एस.सी.) की सिविल परीक्षा सहित एस.एस.सी., बैंक- रेलवे तथा अन्य राज्यों में प्रतियोगिता पर आधारित नौकरियाँ शामिल हैं। किसी भी परिवार में ही सारे लोग शारीरिक- मानसिक तौर पर एक मानक पर खड़ा थोड़े ही होते हैं लेकिन जो कमतर है उसकी उत्कृष्टता की कोशिश की जानी चाहिये बजाय की उपहास का पात्र बनाया जाय। प्रखंड स्तर पर छोटे- छोटे ग्रुप में इन नियोजित शिक्षकों के लिये कॉलेज शिक्षकों की तर्ज पर रिफ्रेशर- ओरियेंन्टेशन कोर्स कराकर गुणवत्ता बहाल करने की कोशिश की जानी चाहिये। एन.सी.इ.आर.टी. एवं एस.सी.इ.आर.टी. जैसे मानक संस्थानों को इस काम में भागीदार बनाया जा सकता है।
बिहार सरकार जो देशभर में ब्रांडिंग कर रही है उसमें नये खुले संस्थानों- नालंदा विश्वविद्यालय, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, निफ्ट, आई.आई.टी., एम्स और खुलने जा रहे नीजी विश्वविद्यालयों की चर्चा खूब होती है लेकिन पुराने शिक्षण संस्थान जो ध्वस्त होते जा रहे हैं उनमें से किसी संस्थान का पुनरूद्धार नहीं दिखाई देता है। बिहार की बूरी तरह से चौपट होती जा रही स्कुली शिक्षा की चिंता नहीं दिखाई देती है। जाहिर है कि बिहार के नेताओं- ब्यूरोक्रेट- बड़े मिडिया समूह से जुड़े लोगों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ते है। बिहार की स्कुली शिक्षा की कमियों- अक्षमताओं का ठीकरा सिर्फ शिक्षकों (पुराने व नये- नियोजित शिक्षक सहित) के माथे फोड़ कर सरकार जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती है। फिलहाल बिहार में नियोजित शिक्षकों की 4 लाख के करीब आबादी के हक- हकूक और मान- सम्मान के सवाल पर बिहार के तमाम छात्र- युवा- शिक्षकों- अभिभावकों और मीडिया कर्मियों- बुद्धिजीवियों को भी चिंता करनी होगी। सवाल 4 लाख युवा साथियों की स्थायी शिक्षक की नौकरी और वेतनमान का ही नहीं है बल्कि इन शिक्षकों की बदौलत बिहार के नौनिहालों का भविष्य संवारने का है। जुमलेबाजी और शिक्षा के बिगड़ते माहौल का रोना छोड़कर हमे स्वीकार करना होगा कि पूरे बिहार भर में यही नियोजित शिक्षक पहली कक्षा से लेकर स्कुली शिक्षा जीवन में छात्रों के बीच बड़ी शैक्षणिक भूमिका में आ चुके हैं। इन्ही पर बिहार में शिक्षा ग्रहण करने वाले 89 फीसदी छात्रों (जिनकी संख्या लाखों में होगी) का भविष्य टिका है और साथ ही लाखो माता- पिता- अभिभावकों के खून- पसीने व मेहनत की कमाई पर आधारित सपना टिका है। अब इन नियोजित शिक्षकों को कोंसने की बजाय बिहार सरकार को बिहार की करोड़ो आवाम की खातिर अविलंब समाधान ढूँढना होगा क्योंकि भविष्य का बिहार बनाने में इनकी भूमिका होगी और इनपर बिहार की भावी पीढ़ी का भविष्य जुड़ा है। अगर बिहार की सरकार नियोजित शिक्षकों को वेतनमान सहित पूर्ण शिक्षक का दर्जा नहीं देती है तो फिर 4 लाख शिक्षकों को परिवार सहित अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास भी कराना चाहिये। एक व्यक्ति के परिवार में अमूमन 5 सदस्य है तो फिर इन शिक्षकों की कुल ताकत 20 लाख होगी जिसकी उपस्थिति सभी विधानसभा क्षेत्रों में निश्चित होगी। इन 20 लाख लोगों को बिहार के छात्रों- अभिभावकों के बीच अपनी सही तस्वीर एवं छवि पेश करनी चाहिये ताकि समर्थन आधार अधिक ज्यादा सुदृढ़ हो सके। फिर मन लगाकर शिक्षण कार्य करते हुये आन्दोलन- संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करते रहना चाहिये ताकि 2015 में अपनी ताकत का एहसास करा सकें। यह भी बहुत बड़ी बात होगी कि अगर बिहार में 2015 का चुनाव शिक्षा और शिक्षकों के सवाल पर लड़ा जाय जिसमें नियोजित शिक्षकों की अहम भूमिका होगी ताकि अगली जो भी नयी सरकार बिहार में बने उसके लिये शिक्षा का सवाल प्राथमिकता में सबसे उपर हो।