हाल ही में 3 सितम्बर, 2014 को पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में एक शिक्षक अदालत का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में बिहार भर से 8 से 10,000 नियोजित शिक्षक पटना पहुँचे थे। इसी जगह पर अक्सर राजनीतिक कार्यक्रम होते रहते हैं जिसमें भीड़ जुटाई जाती है परन्तु उपस्थित शिक्षक समूह और उनके जोश-जज्बे-तेवर को देखकर एक बात जेहन में आई कि बिहार का यह एक बहुत बड़ा सोशल- पॉलिटिकल युवा समूह है जिसमें बड़ी क्षमता है। इस बड़ी ताकत का सकारात्मक इस्तेमाल बिहार में बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करने में जरूर की जानी चाहिये। इस कार्यक्रम के अगले दिन के अखबारों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि शिक्षा के सवाल को लेकर बिहार की मिडिया का रूख क्या है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, आज- अखबार ने इस खबर को अच्छी-बुरी जो भी हो कवरेज दी। लेकिन प्रभात खबर में एक शब्द भी नहीं छपा वहीं दैनिक हिन्दुस्तान में इस खबर को संक्षिप्त खबरों की तरह मुद्दे गौण करके छापा गया। सवाल है कि कोई भी 8-10 हजार का सामाजिक समूह जो लोकतंत्र में शिक्षा या आवाम से जुड़े किसी खास मुद्दे को लेकर एकजुट होता हो सभा या प्रदर्शन के लिये उसको मीडिया कैसे खबरो में जगह देने से वंचित रख सकती है और खबरो में जगह पाने से इन समूह या मुद्दों को कैसे खारिज कर सकती है। जस्टिस काटजू ने कुछ वर्ष पहले अगर कहा कि बिहार में मीडिया सेन्सरशिप है तो उसपर सत्ता से जुड़े लोगों ने कड़ा विरोध जताया लेकिन बिहार की मीडिया का तथ्यपरक विश्लेषण करें तो काटजू साहब के बात की सत्यता या पेड न्यूज की बात आज भी कई अखबारों के संदर्भ में सिद्ध की जा सकती है। पटना की कई घटनाओं, धरना या प्रदर्शन की खबर कई अखबारों के पटना संस्करण में नहीं छपती है लेकिन दूसरे जिलों के संस्करण में छपती है। कोई खबर किसी संस्करण में पहले पन्ने की सुर्खियाँ बनती है तो दूसरे संस्करण में नदारद है। इसी तरह हत्या, बलात्कार जैसी घटनाओं और बिहार भर में चल रहे जनहित से जुड़े आन्दोलनों को लेकर भी बिहार के अखबारों का यही रवैया है। विभिन्न संस्करणों वाले ये अखबार सरकार के पक्ष में खबरों की बैलेंसिंग करते नजर आते हैं। उदाहरण के लिये अगर भागलपुर या मोतिहारी में बलात्कार की नृशंस घटना घटती है तो क्या वह पटना या गया के लोगों के लिये पॉलिटिकल ओपिनियन बनाने के लिहाज से मायने नहीं रखती है? सूचना क्रांति के दौर में जनहित से जुड़े मुद्दे पर सूचना के प्रवाह को रोकने और सरकारी भोंपू के तौर पर मीडिया के इस्तेमाल किये जाने के उदाहरण लोकतंत्र में एक साजिश से कम नहीं है। इन सारे अध्ययनों के बाद अब अखबारों के सलेक्शन को लेकर भी जनता को जागरूक होने की जरूरत है कि अखबार क्या पढ़ाना चाहते हैं, अखबार क्या लिखता- छापता है, कहीं अखबार सरकार या किसी इन्ट्रेस्ट- लॉबी ग्रुप का भोंपू बनकर अनर्गल की बातें हमारे मन- मस्तिष्क में प्रवाहित करना- घुसेड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहा है? साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि हम क्या पढ़ना चाहते हैं, हमारे सामाजिक – राजनीतिक हित क्या है, हमारे जनहित के मुद्दों से जुड़े संघर्ष, आन्दोलन पर अखबार का रूख पक्षपाती तो नहीं है? लोकतंत्र में यह अब काफी महत्वपूर्ण हो गया है जिसको लेकर बिहार की जनता को भी शीघ्रता से जागरूक होने की जरूरत है अन्यथा गलत-अनर्गल और दूसरों के पक्ष- हित की बात पढ़ते- लिखते- सुनते एक दिन हम सभी दूसरों के प्रचारक बनकर घुमते नजर आयेंगे और हमारे अपने हक- हकूक की बातें गौण हो जायेंगी। देशभर में ऐसी कई घटनायें भी सुनने में आयी हैं जहाँ जनहित के मुद्दे पर अखबारों के घोर पक्षपाती रूख से तंग आकर लोगों ने सामुहिक तौर पर अखबारों की प्रतियाँ खरीद कर अर्थी जुलूस निकालते हुये सार्वजनिक तौर पर जलाने का काम किया है। जाहिर सी बात है कि अखबार जलाने की खबर ये अखबार खुद क्यों छापेंगे भला क्योंकि ये अपनी भद खुद पीटवाने जैसी बात है। लोकंतंत्र में सूचना प्रवाह को बाधित करने की साजिश के खिलाफ यह भी एक रास्ता अख्तियार करना चाहिये या फिर उक्त अखबार के सामुहिक विरोध या बहिष्कार का निर्णय भी लेना चाहिये। साथ ही सोशल मीडिया को ज्यादा से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराकर अपने लोगों के बीच संवाद का एक माध्यम तैयार करना चाहिये।
यह पूरी बातें नियोजित शिक्षकों के सवाल पर हो रही है और इसमें कोई शक नहीं कि ये शिक्षक बिहार सरकार की गलत शिक्षा नीति व युवा नीति का शिकार होकर असंतुष्ट जीवन जीने को मजबूर है। ये लोग स्कुलों में काम सरकारी शिक्षकों के बराबर ही करते हैं लेकिन माथे पर इनके नियोजित का ठप्पा चस्पा कर दिया गया है। वेतन इतना की अपनी पत्नी, बच्चे, माँ- पिताजी, परिवार की नजरों में नौकरी करते हुये बेकार हैं। घर- परिवार में कोई बीमार पड़ जाय, अपने बच्चों को उच्च व अच्छी शिक्षा देना हो, फिर बेटी की शादी करनी हो या सगे- संबंधियों का न्यौता वगैरह करना हो तो कमर टूट जायगी – सूदखोर की शरण में जाना पड़ेगा। कई लोग यह कहते हैं कि सरकार ने इनकी ठेकेदारी तो नहीं ले रखी है, सरकार की शर्तों पर इन शिक्षकों ने नौकरी ज्वायन की तो अब फिर ये नखरा क्यों? सवाल समान काम के लिये समान वेतन पाने के अधिकार का है और एक सरकारी निकाय में काम करने वाले लोगों के मानवाधिकार का है। क्या सरकारी निकाय जिसमें शिक्षा शामिल है- नीजी फैक्ट्रियों के बंधुआ मजदूरों की तरह संचालित होगें? फिर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत सुविधाओं की गुणवत्ता क्या सरकार की जिम्मेदारी इस लोक कल्याणकारी राज्य में नहीं होनी चाहिये? आश्चर्य होता है कि शिक्षकों के पक्ष से उठे सवाल पर गंभीरता से सार्वजनिक बयान सरकार ने कभी नहीं दिया बल्कि इन शिक्षकों को ही फर्जी और निकम्मा घोषित करने में लगी रही है। बिहार में चल रहे तमाम सरकारी योजनाओं, केन्द्रीय योजनाओं में जितने भ्रष्टाचार के कारण लिकेज है और फिर जितने पैसे विभिन्न विभागों के बजट वर्ष में खर्च न कर पाने के कारण केन्द्र को लौट जाते हैं उनका निष्पक्ष हिसाब करें तो 4 लाख क्या 10 लाख नये शिक्षकों को बिहार सरकार पूर्ण वेतन दे सकती है। आंकड़ों में हम न उलझते हुये सीधी बात करें तो लालू प्रसाद- राबड़ी देवी के शासन से अब नीतीश कुमार- जीतनराम माँझी के शासन काल तक केन्द्र से बिहार को मिलने वाले वार्षिक राशि में करीब कई गुणा इजाफा हो चुका है। फिर केन्द्रीय योजनाओं जिसमें शिक्षा को लेकर भी कई योजनायें हैं जिनसे को मिलने वाली राशि का आंकलन करें तो बिहार सरकार को पैसे की कमी का रोना बंद कर देना चाहिये, यह सीधे तौर पर आम जनता को झाँसा देने और बरगलाने वाली बात है।