Sunday, November 16, 2014

नियोजित शिक्षकों के संदर्भ में बिहार की शिक्षा का सवाल



तात्कालीन सामाजिक- राजनीतिक संदर्भ में देखें तो बिहार में 1990 से 2005 और 2005 से 2015 तक का कालखंड शायद शिक्षा के लिहाज से निरंतर निम्नतर प्रगति का काल माना जा सकता है। अगर पहले से गिरावट चली आ रही थी तो इस कालखंड में बिहार की शैक्षणिक स्थिति में सुधार की बजाय गिरावट का पैमाना खासतौर से देखा जा सकता है जिसे रोकने व बेहतरी का प्रयास वाकई में राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ नहीं किया गया। इस वर्तमान स्थिति को देखने के बाद बिहार की राजनीति का बहुत निष्पक्ष और तथ्यपरक विश्लेषण करें तो आजादी के बाद से लेकर अबतक शिक्षा को लेकर बहुत आदर्शवादी स्थिति कभी भी रही होगी इसपर भी संदेह होने लगता है। ऐसे में 1990 के पूर्व के कालखंड में शिक्षा को लेकर प्रगति के बारे में भी बहुत ज्यादा बहस की गुंजाइश नजर आती है।
शिक्षा की बात जब भी चलती है तो अक्सर लोगों को ध्यान उच्च एवं उच्चतर शिक्षा की ओर जाता है जो शिक्षा पर बहस के मुख्य केन्द्र बिंदू बनते रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा जो कि पूरी शिक्षा व्यवस्था के लिये रीढ़ का काम करते हैं उसपर कम बहस होता रहा है। लेकिन सर्वशिक्षा अभियान या फिर साक्षरता मिशन जैसे कार्यक्रमों के महत्व में आने के बाद प्राथमिक शिक्षा का सवाल ज्यादा प्रासंगिक हुये हैं। यह बात बौद्धिक- अकादमिक विमर्श से परे आम जनता की शैक्षणिक जरूरतों और सरकार की शिक्षा को लेकर प्राथमिकताओं के संदर्भ में ज्यादा बेहतर तरीके से समझी जा सकती है।


फिलहाल लालू प्रसाद के 15 सालों की चर्चा न करें तो भी नीतीश कुमार एवं उनके द्वारा संचालित सरकार के 9 साल पूरे हो चुके हैं। अब इन 9 सालों के बाद शिक्षा की कुव्यवस्था का ठीकरा पिछली सरकार पर फोड़ने की बजाय वर्तमान की सरकार पर जिम्मेदारी तय करने की बनती है। आज भले ही दोनों बड़े भाई व छोटे भाई साथ हो लेकिन गौरतलब है कि यह वर्तमान की जे.डी.यू. सरकार अपने से पूर्व के 15 सालों को जंगलराज बताती रही है और खुद के सुशासन का दावा करती रही है। फिर कोई सुशासन का दावा करने वाली सरकार किसी तथाकथित जंगलराज का पर्याय बन चुके राजनीतिक दल के साथ गठबंधन कैसे कर सकता है? दिलचस्प यह है कि छोटे भाई ने ही बड़े भाई के खिलाफ जंगलराज का जुमला गढ़ा पर अब एक साथ आ गये है तो सवाल उठता है कि आखिर किस मुद्दे, एजेन्डे या उद्देश्य को लेकर इन दोनों की सहमति है? क्या शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास, उद्योग के सवाल को लेकर साथ हैं? या फिर नीजी या पारिवारिक साख बचाने की मुहिम को मोदी विरोध के नाम का मुखौटा पहनाया गया है
अगर बिहार में वाकई सुशासन है तो आर्थिक कुप्रबंधन कैसे है जिसका हवाला पिछले 8-9 सालों के सी.ए.जी. रिपोर्ट के अध्ययन से स्पष्ट पता लगता है और फिर शैक्षणिक अराजकता का माहौल कैसे है? देश- दुनिया में आंकड़ों की बाजीगरी की बदौलत वर्त्तमान सरकार ने चाहे जितनी भी ब्रांडिंग की हो लेकिन स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी तमाम सवालो के बीच सिर्फ शिक्षा का सवाल अकेले इतना भारी है जो बिहार में कुशासन का सबसे बड़ा प्रमाण कहा जा सकता है। बिहार सरकार के शिक्षा को लेकर सार्वजनिक किये गये आंकड़ो पर भी सवाल खड़ा होता है क्योंकि किसी भी बड़े निष्पक्ष अध्ययन, सर्वे या रिपोर्ट में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन की बात नहीं की गई है। साईकिल, पोशाक, स्कॉलरशिप योजना- जिसकी दुहाई दी जाती थी, उसमें तमाम अनियमितताओं के बाद लाभान्वितों के नाम पर फर्जीवाड़ा सामने है। प्रारंभिक सफलता के बाद ये योजनायें भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ चुकीं हैं। जब भी इन योजनाओं के तहत साइकिल- पोशाक- छात्रवृति का बँटवारा करने की बात आती है बिहार भर के तमाम स्कुलों में हंगामे, तोड़फोड़, शिक्षकों के खिलाफ आक्रोश- मारपीट की खबर सुर्खियों में होती है। मिड-डे मिल योजना पिछले 9 सालों में व्यवस्थित नहीं हो सकी और किसी भी स्तर की शिक्षा में गुणवत्ता के दावे ने दम तोड़ दिया है। जाहिर है कि ड्रॉप-आउट की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। शिक्षा के आकड़ों पर सवाल इसलिए भी उठाना लाजिमी है कि स्कुलों के रॉल या अटेन्डेन्स रजिस्टर में फर्जी नामों की खानापूर्ति की जा रही है। एक ही बच्चे का नाम कई स्कुलों में है या फिर उनका नाम दर्ज है जो वास्तव में हैं ही नहीं। यानि की योजनाओं में भ्रष्टाचार के पोषण के लिये अधिकारियों के मिलीभगत से झूठे नाम दर्ज किये जा रहे हैं साथ ही सरकार के दावे एवं हवाई मानदंड को पूरा दिखाने के लिये ये फर्जीवाड़ा उपरी संरक्षण में चल रहा है। लेकिन यहां पर भी शिक्षक कम दोषी एवं दबाव में ज्यादा नजर आते हैं और व्यवस्था एवं उसके संचालन करने वाले नेता- अधिकारी ज्यादा बड़े आरोपी हैं।  
इनदिनों बिहार में नियोजित शिक्षकों का एक बड़ा हुजूम खड़ा हो गया है जिनकी कुल संख्या लगभग 4 लाख होगी। इन शिक्षकों को लेकर बिहार की आम जनता से पूछें तो धारणा बहुत स्पष्ट नहीं है- न तो पक्ष में न ही विपक्ष में। इन नियोजित शिक्षकों की नियुक्ति से अबतक एक बड़ा वक्त गुजर चुका है जिसमें सरकार ने नौकरी देकर अहसान करने वाली अपनी छवि गढ़ी तो इन नियोजित शिक्षकों की छवि बेचारों की गढ़ दी गई। यानि की एक ऐसे युवाओं की छवि जो बेकार, बेरोजगार सड़कों पर मारे फिर रहे थे जिनको कोई पूछने वाला नहीं था, जिनकों कहीं नौकरी नहीं मिलती उन्हे सरकार ने नौकरी दे दी। फिर नीतीश शासन के शुरूआती दौर में जब ये नियुक्तियाँ शुरू हुई तो मिडिया ने सरकार के भाँट- चारण के तौर पर सरकार की चापलूसी में इन नियुक्तियों को बहुप्रचारित कर बड़े सवालों को गौण कर दिया। समय के अंतराल में जब परते खुलती जा रही है तो सवाल उभरते जा रहे हैं। नियोजित शिक्षकों के पक्ष में सबसे बड़ा मुद्दा है - मानव अधिकार के तहत समान काम के लिये समान वेतन का नैसर्गिक न्याय - जिसकी रक्षा भारत का संविधान भी करता है।  एक समाजवादी आदर्शों का दावा करने वाली सरकार से लोकतंत्र में इनकी माँग कोई नाजायज नहीं है और न ही अनैतिक है लेकिन इन शिक्षकों के साथ लगातार सरकार-प्रशासन-पुलिस का रवैया बहुत ही ज्यादा आपत्तिजनक है। जिस तरीके से इनकी माँगों को सरकार लगातार रिस्पॉन्ड कर रही है वह बड़ा ही शर्मनाक है। एक दौर में नीतीश कुमार तो इन शिक्षकों को सार्वजनिक मंच से धमकी तक दी थी और जहाँ कहीं भी नीतीश जी की सभा होती शिक्षकों को वहाँ पहुचने से रोकने के लिये तमाम तरीके पुलिस- प्रशासन अपनाती थी।
 
हाल ही में 3 सितम्बर, 2014 को पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में एक शिक्षक अदालत का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में बिहार भर से 8 से 10,000 नियोजित शिक्षक पटना पहुँचे थे। इसी जगह पर अक्सर राजनीतिक कार्यक्रम होते रहते हैं जिसमें भीड़ जुटाई जाती है परन्तु उपस्थित शिक्षक समूह और उनके जोश-जज्बे-तेवर को देखकर एक बात जेहन में आई कि बिहार का यह एक बहुत बड़ा सोशल- पॉलिटिकल युवा समूह है जिसमें बड़ी क्षमता है। इस बड़ी ताकत का सकारात्मक इस्तेमाल बिहार में बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करने में जरूर की जानी चाहिये। इस कार्यक्रम के अगले दिन के अखबारों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि शिक्षा के सवाल को लेकर बिहार की मिडिया का रूख क्या है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, आज- अखबार ने इस खबर को अच्छी-बुरी जो भी हो कवरेज दी। लेकिन प्रभात खबर में एक शब्द भी नहीं छपा वहीं दैनिक हिन्दुस्तान में इस खबर को संक्षिप्त खबरों की तरह मुद्दे गौण करके छापा गया। सवाल है कि कोई भी 8-10 हजार का सामाजिक समूह जो लोकतंत्र में शिक्षा या आवाम से जुड़े किसी खास मुद्दे को लेकर एकजुट होता हो सभा या प्रदर्शन के लिये उसको मीडिया कैसे खबरो में जगह देने से वंचित रख सकती है और खबरो में जगह पाने से इन समूह या मुद्दों को कैसे खारिज कर सकती है। जस्टिस काटजू ने कुछ वर्ष पहले अगर कहा कि बिहार में मीडिया सेन्सरशिप है तो उसपर सत्ता से जुड़े लोगों ने कड़ा विरोध जताया लेकिन बिहार की मीडिया का तथ्यपरक विश्लेषण करें तो काटजू साहब के बात की सत्यता या पेड न्यूज की बात आज भी कई अखबारों के संदर्भ में सिद्ध की जा सकती है। पटना की कई घटनाओं, धरना या प्रदर्शन की खबर कई अखबारों के पटना संस्करण में नहीं छपती है लेकिन दूसरे जिलों के संस्करण में छपती है। कोई खबर किसी संस्करण में पहले पन्ने की सुर्खियाँ बनती है तो दूसरे संस्करण में नदारद है। इसी तरह हत्या, बलात्कार जैसी घटनाओं और बिहार भर में चल रहे जनहित से जुड़े आन्दोलनों को लेकर भी बिहार के अखबारों का यही रवैया है। विभिन्न संस्करणों वाले ये अखबार सरकार के पक्ष में खबरों की बैलेंसिंग करते नजर आते हैं। उदाहरण के लिये अगर भागलपुर या मोतिहारी में बलात्कार की नृशंस घटना घटती है तो क्या वह पटना या गया के लोगों के लिये पॉलिटिकल ओपिनियन बनाने के लिहाज से मायने नहीं रखती है? सूचना क्रांति के दौर में जनहित से जुड़े मुद्दे पर सूचना के प्रवाह को रोकने और सरकारी भोंपू के तौर पर मीडिया के इस्तेमाल किये जाने के उदाहरण लोकतंत्र में एक साजिश से कम नहीं है। इन सारे अध्ययनों के बाद अब अखबारों के सलेक्शन को लेकर भी जनता को जागरूक होने की जरूरत है कि अखबार क्या पढ़ाना चाहते हैं, अखबार क्या लिखता- छापता है,  कहीं अखबार सरकार या किसी इन्ट्रेस्ट- लॉबी ग्रुप का भोंपू बनकर अनर्गल की बातें हमारे मन- मस्तिष्क में प्रवाहित करना- घुसेड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहा है? साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि हम क्या पढ़ना चाहते हैं, हमारे सामाजिक – राजनीतिक हित क्या है, हमारे जनहित के मुद्दों से जुड़े संघर्ष, आन्दोलन पर अखबार का रूख पक्षपाती तो नहीं है? लोकतंत्र में यह अब काफी महत्वपूर्ण हो गया है जिसको लेकर बिहार की जनता को भी शीघ्रता से जागरूक होने की जरूरत है अन्यथा गलत-अनर्गल और दूसरों के पक्ष- हित की बात पढ़ते- लिखते- सुनते एक दिन हम सभी दूसरों के प्रचारक बनकर घुमते नजर आयेंगे और हमारे अपने हक- हकूक की बातें गौण हो जायेंगी। देशभर में ऐसी कई घटनायें भी सुनने में आयी हैं जहाँ जनहित के मुद्दे पर अखबारों के घोर पक्षपाती रूख से तंग आकर लोगों ने सामुहिक तौर पर अखबारों की प्रतियाँ खरीद कर अर्थी जुलूस निकालते हुये सार्वजनिक तौर पर जलाने का काम किया है। जाहिर सी बात है कि अखबार जलाने की खबर ये अखबार खुद क्यों छापेंगे भला क्योंकि ये अपनी भद खुद पीटवाने जैसी बात है। लोकंतंत्र में सूचना प्रवाह को बाधित करने की साजिश के खिलाफ यह भी एक रास्ता अख्तियार करना चाहिये या फिर उक्त अखबार के सामुहिक विरोध या बहिष्कार का निर्णय भी लेना चाहिये। साथ ही सोशल मीडिया को ज्यादा से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराकर अपने लोगों के बीच संवाद का एक माध्यम तैयार करना चाहिये।
 
यह पूरी बातें नियोजित शिक्षकों के सवाल पर हो रही है और इसमें कोई शक नहीं कि ये शिक्षक बिहार सरकार की गलत शिक्षा नीति व युवा नीति का शिकार होकर असंतुष्ट जीवन जीने को मजबूर है। ये लोग स्कुलों में काम सरकारी शिक्षकों के बराबर ही करते हैं लेकिन माथे पर इनके नियोजित का ठप्पा चस्पा कर दिया गया है। वेतन इतना की अपनी पत्नी, बच्चे, माँ- पिताजी, परिवार की नजरों में नौकरी करते हुये बेकार हैं। घर- परिवार में कोई बीमार पड़ जाय, अपने बच्चों को उच्च व अच्छी शिक्षा देना हो, फिर बेटी की शादी करनी हो या सगे- संबंधियों का न्यौता वगैरह करना हो तो कमर टूट जायगी – सूदखोर की शरण में जाना पड़ेगा। कई लोग यह कहते हैं कि सरकार ने इनकी ठेकेदारी तो नहीं ले रखी है, सरकार की शर्तों पर इन शिक्षकों ने नौकरी ज्वायन की तो अब फिर ये नखरा क्यों? सवाल समान काम के लिये समान वेतन पाने के अधिकार का है और एक सरकारी निकाय में काम करने वाले लोगों के मानवाधिकार का है। क्या सरकारी निकाय जिसमें शिक्षा शामिल है- नीजी फैक्ट्रियों के बंधुआ मजदूरों की तरह संचालित होगें? फिर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत सुविधाओं की गुणवत्ता क्या सरकार की जिम्मेदारी इस लोक कल्याणकारी राज्य में नहीं होनी चाहिये? आश्चर्य होता है कि शिक्षकों के पक्ष से उठे सवाल पर गंभीरता से सार्वजनिक बयान सरकार ने कभी नहीं दिया बल्कि इन शिक्षकों को ही फर्जी और निकम्मा घोषित करने में लगी रही है। बिहार में चल रहे तमाम सरकारी योजनाओं, केन्द्रीय योजनाओं में जितने भ्रष्टाचार के कारण लिकेज है और फिर जितने पैसे विभिन्न विभागों के बजट वर्ष में खर्च न कर पाने के कारण केन्द्र को लौट जाते हैं उनका निष्पक्ष हिसाब करें तो 4 लाख क्या 10 लाख नये शिक्षकों को बिहार सरकार पूर्ण वेतन दे सकती है। आंकड़ों में हम न उलझते हुये सीधी बात करें तो लालू प्रसाद- राबड़ी देवी के शासन से अब नीतीश कुमार- जीतनराम माँझी के शासन काल तक केन्द्र से बिहार को मिलने वाले वार्षिक राशि में करीब कई गुणा इजाफा हो चुका है। फिर केन्द्रीय योजनाओं जिसमें शिक्षा को लेकर भी कई योजनायें हैं जिनसे को मिलने वाली राशि का आंकलन करें तो बिहार सरकार को पैसे की कमी का रोना बंद कर देना चाहिये, यह सीधे तौर पर आम जनता को झाँसा देने और बरगलाने वाली बात है।

बिहार की आवाम का 89 फिसदी छात्र इन सरकारी शिक्षण संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण करते हैं। इन स्कुलों में शिक्षकों के बहाली की नीति का निर्धारण तो सरकार ने अपने शर्तों पर किया, गुणवत्ता के सवाल पर सरकार ने कोर्ट में भी अपने नियुक्त शिक्षकों के गुणवत्ता पर उत्तम कोटि के होने की बात स्वीकार की और दक्षता परीक्षा की खानापूर्ति का तरीका अपनाया ताकि अपने नवनियुक्त शिक्षकों के दक्ष व गुणवत्ता पर खड़े होने का दावा आधिकारिक तौर पर कर सकें। लेकिन हास्यास्पद यह है कि इन्ही शिक्षकों को अपने घर में बिहार के मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री, अधिकारी अनेक जुमलों का प्रयोग कर हीनता- दीनता का एहसास कराते रहते हैं। यह बिहार सरकार की दोमुँहा नीति ही कही जा सकती है। टी.वी. मीडिया ने भी यदा- कदा किसी शिक्षक के मुँह में माइक ठूँसकर एक सवाल या स्पेलिंग पूछा और बारंबार दिखाकर समूचे नवनियुक्त शिक्षकों को देश-दुनिया में नाकाबिल घोषित करने का प्रयास किया है। मीडिया की ये खबरें सही होते हुये भी संदर्भ गलत है क्योंकि समूचे शिक्षक वर्ग जिनकी संख्या बिहार में 5 से 5.5 लाख होगी इनको उपहास का पात्र बनाना सही नहीं है। अगर ऐसे ही अंग्रेजी का स्पेलिंग टेस्ट या फिर जेनरल नॉलेज का सवाल ज्ञान का मानक है तो बिहार के तमाम नेताओं, ब्यूरोक्रेट, मीडिया कर्मियों और नियोजित शिक्षकों का एक सामुहिक सामान्य ज्ञान व अंग्रेजी ज्ञान परीक्षण प्रतियोगिता आयोजित की जानी चाहिये। इसमें शक नहीं कि कई ऐसे महाज्ञानी नेता, ब्यूरोक्रेट, पत्रकार होंगे जो नियोजित शिक्षकों से नीचे का अंक व स्थान प्राप्त करेंगे क्योकि इन्ही नियोजित शिक्षकों के बीच से लोग इनदिनों देशभर की विभिन्न प्रतियोगिताओं में चुने जा रहे हैं जिनमें केन्द्रीय (यू.पी.एस.सी.) व बिहार (बी.पी.एस.सी.) की सिविल परीक्षा सहित एस.एस.सी., बैंक- रेलवे तथा अन्य राज्यों में प्रतियोगिता पर आधारित नौकरियाँ शामिल हैं। किसी भी परिवार में ही सारे लोग शारीरिक- मानसिक तौर पर एक मानक पर खड़ा थोड़े ही होते हैं लेकिन जो कमतर है उसकी उत्कृष्टता की कोशिश की जानी चाहिये बजाय की उपहास का पात्र बनाया जाय। प्रखंड स्तर पर छोटे- छोटे ग्रुप में इन नियोजित शिक्षकों के लिये कॉलेज शिक्षकों की तर्ज पर रिफ्रेशर- ओरियेंन्टेशन कोर्स कराकर गुणवत्ता बहाल करने की कोशिश की जानी चाहिये। एन.सी.इ.आर.टी. एवं एस.सी.इ.आर.टी. जैसे मानक संस्थानों को इस काम में भागीदार बनाया जा सकता है।
बिहार सरकार जो देशभर में ब्रांडिंग कर रही है उसमें नये खुले संस्थानों- नालंदा विश्वविद्यालय, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, निफ्ट, आई.आई.टी., एम्स और खुलने जा रहे नीजी विश्वविद्यालयों की चर्चा खूब होती है लेकिन पुराने शिक्षण संस्थान जो ध्वस्त होते जा रहे हैं उनमें से किसी संस्थान का पुनरूद्धार नहीं दिखाई देता है। बिहार की बूरी तरह से चौपट होती जा रही स्कुली शिक्षा की चिंता नहीं दिखाई देती है। जाहिर है कि बिहार के नेताओं- ब्यूरोक्रेट- बड़े मिडिया समूह से जुड़े लोगों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ते है। बिहार की स्कुली शिक्षा की कमियों- अक्षमताओं का ठीकरा सिर्फ शिक्षकों (पुराने व नये- नियोजित शिक्षक सहित) के माथे फोड़ कर सरकार जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती है। फिलहाल बिहार में नियोजित शिक्षकों की 4 लाख के करीब आबादी के हक- हकूक और मान- सम्मान के सवाल पर बिहार के तमाम छात्र- युवा- शिक्षकों- अभिभावकों और मीडिया कर्मियों- बुद्धिजीवियों को भी चिंता करनी होगी। सवाल 4 लाख युवा साथियों की स्थायी शिक्षक की नौकरी और वेतनमान का ही नहीं है बल्कि इन शिक्षकों की बदौलत बिहार के नौनिहालों का भविष्य संवारने का है। जुमलेबाजी और शिक्षा के बिगड़ते माहौल का रोना छोड़कर हमे स्वीकार करना होगा कि पूरे बिहार भर में यही नियोजित शिक्षक पहली कक्षा से लेकर स्कुली शिक्षा जीवन में छात्रों के बीच बड़ी शैक्षणिक भूमिका में आ चुके हैं। इन्ही पर बिहार में शिक्षा ग्रहण करने वाले 89 फीसदी छात्रों (जिनकी संख्या लाखों में होगी) का भविष्य टिका है और साथ ही लाखो माता- पिता- अभिभावकों के खून- पसीने व मेहनत की कमाई पर आधारित सपना टिका है। अब इन नियोजित शिक्षकों को कोंसने की बजाय बिहार सरकार को बिहार की करोड़ो आवाम की खातिर अविलंब समाधान ढूँढना होगा क्योंकि भविष्य का बिहार बनाने में इनकी भूमिका होगी और इनपर बिहार की भावी पीढ़ी का भविष्य जुड़ा है। अगर बिहार की सरकार नियोजित शिक्षकों को वेतनमान सहित पूर्ण शिक्षक का दर्जा नहीं देती है तो फिर 4 लाख शिक्षकों को परिवार सहित अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास भी कराना चाहिये। एक व्यक्ति के परिवार में अमूमन 5 सदस्य है तो फिर इन शिक्षकों की कुल ताकत 20 लाख होगी जिसकी उपस्थिति सभी विधानसभा क्षेत्रों में निश्चित होगी। इन 20 लाख लोगों को बिहार के छात्रों- अभिभावकों के बीच अपनी सही तस्वीर एवं छवि पेश करनी चाहिये ताकि समर्थन आधार अधिक ज्यादा सुदृढ़ हो सके। फिर मन लगाकर शिक्षण कार्य करते हुये आन्दोलन- संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करते रहना चाहिये ताकि 2015 में अपनी ताकत का एहसास करा सकें। यह भी बहुत बड़ी बात होगी कि अगर बिहार में 2015 का चुनाव शिक्षा और शिक्षकों के सवाल पर लड़ा जाय जिसमें नियोजित शिक्षकों की अहम भूमिका होगी ताकि अगली जो भी नयी सरकार बिहार में बने उसके लिये शिक्षा का सवाल प्राथमिकता में सबसे उपर हो।

Tuesday, February 14, 2012

शरद यादव ऑन मिडिया !!!!!


मिडिया की दुकानदारी से एन.डी.ए. कॉन्वेनर और जे.डी.यू. के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव काफी खफा है। शरद यादव कहते हैं कि चुनावी प्रक्रिया में सुधार करके लोकतंत्र को मजबूत करना है तो सिर्फ राजनीतिक सुधार से कुछ नहीं होगा मिडिया में बड़े तौर पर सुधार की जरूरत है। मिडिया में बढ़ती दलाली, ठेकेदारी, चाटुकारिता और चापलूसी संस्कृति से शरद यादव नाराज है। इनदिनों शरद खुलकर मिडिया से जुड़े मसलों पर बोल रहे हैं। लखनऊ में 14 फरवरी को उन्होंने मिडिया पर अपनी बात कुछ इस तरह से रखी जो मिडिया से किसी भी रूप में ताल्लुकात रखने वाले लोगों को जानना और सुनना चाहिये।

बिहार के सियासी दल बनेंगे उत्तर प्रदेश में वोटकटवा !!!



बात मकर संक्रांति के दिन की है। बी.जे.पी. के एक नेता के घर दही- चुड़ा खाने का कार्यक्रम था। कमोबेश इन्हीं दिनों जे.डी.यू. उत्तर प्रदेश का चुनावी जंग बी.जे.पी. से अलग होकर लड़ने का मन बना चुकी थी। बातचीत के दौर में ही जनाब बिहार एन.डी.. के सिरमौर कहे जाने वाले नेताजी कह बैठे कि - जिन्हें हम अपनी पार्टी से टिकट नहीं देगें उसे अपने सहयोगी से दिलवा देंगे। अब बात हलके में या मजाक में कही गयी भले हो लेकिन इसकी हकीकत से इन्कार भले ही किया जा सके। बिहार की राजनीति को नजदीक से देखने वाले लोग भी जानते हैं कि किस तरह लालू यादव ने कालांतर में कांग्रेस को पूरी सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये मनाकर वोटकटवा बना दिया और सत्ता में पुनर्वापसी भी की। इस प्रॉक्सी पॉलिटिक्स के तकाजे से देश की राजनीतिक समझ रखने वाले लोग बखूबी दो- चार हैं। राजनीति में चुनावी समझौता करना और सहयोगी बनना आमबात है। लेकिन बैकडोर से अंदरूनी समझौते के तहत उम्मीदवारों को खड़ा कर वोट काटना और अपने सहयोगी को जितने में मदद करना भी वर्त्तमान राजनीति का तकाजा बन चुका है। अगर इस पूरे संदर्भ को संज्ञान में लें तो सवाल उठता है कि लालू यादव तो कांग्रेस के पक्ष में सरेन्डर बोल चुके हैं ! पर क्या उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के लिये एल.जे.पी. और बी.जे.पी. के लिये जे.डी.यू. इसी वोटकटवा की भूमिका में है?

उत्तर प्रदेश के चुनाव में बिहार की तीन प्रमुख सियासी पार्टियाँ भी अपना दम ठोक रही हैं और राजनीति का विस्तार करने में जुटी हैं। बी.जे.पी. से अलग उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी जनता दल यूनाईटेड ने 403 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर दिया है जिससे जाहिर है कि 2014 के राष्ट्रीय परिदृश्य में अपना दबदबा कायम करना चाहती है। वहीं मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल सेक्यूलर मतों का बिखराव रोकने के लिये ज्यादा सीटों पर लड़ने के मूड में नहीं है और लालू यादव की पूरी रणनीति कांग्रेस हाईकमान व युवराज को खुश करने की है। तो लोक जनशक्ति पार्टी दफ्तर ढ़ूढ़ने पर भले ही मिल जाये पर नेता ढ़ूढ़ना बहुत मुश्किल है लेकिन रामविलास पासवान 403 सीटों पर लड़ने का मन बना चुके है। इस पूरे परिदृश्य में साफ है कि इन दलों से ज्यादा इनके नेताओं का वजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव पर अँटका हुआ है। चुनाव परिणाम से न सिर्फ इन दलों का जमीनी धरातल पर मजबूती साबित होगी, लालू- रामविलास - नीतीश कुमार की बिहार के बाहर असर भी साबित होगा।

बिहार में जनता दल यूनाईटेड और भारतीय जनता पार्टी की मिली जुली सरकार चल रही है। बिहार में जे.डी.यू. - बी.जे.पी. पिछले कई सालों से साथ चुनाव लड़ा करते है और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) का अहम हिस्सा है। इस एन.डी.ए. (राजग) गठबंधन के कन्वेनर जे.डी.यू. के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव में पार्टी ने सभी 403 सीटों पर लड़ने का ऐलान किया है। जाहिर सी बात है कि जे.डी.यू. के लिये इस बड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में शरद यादव- नीतीश कुमार और पार्टी में उत्तर प्रदेश से जुड़े दो खास नेता राज्यसभा सदस्य आर.सी.पी. सिंह और राष्ट्रीय महासचिव के.सी.त्यागी शामिल हैं। इसमें आर.सी.पी. सिंह नीतीश के खासमखास तो हैं ही, खास बात की उत्तर प्रदेश कैडर के आई.ए.एस. अधिकारी भी रह चुके हैं। इनदिनों जब उत्तर प्रदेश चुनाव की गतिविधियाँ तेज हैं जे.डी.यू. के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव, आर.सी.पी. सिंह और के.सी.त्यागी राजधानी लखनऊ में हरसंभव मौजूद रहकर इस पूरे चुनाव का निर्देशन कर रहे हैं। जे.डी.यू. भट्टा परसौल किसान आंदोलन के नेता मनवीर तेवतिया को जेवर विधानसभा से टिकट दिया है तो कई पूर्व सांसदों, विधायकों और दूसरे दलों के विक्षुब्ध निवर्त्तमान विधायकों को चुनाव में उतारा है। उत्तर प्रदेश के बहाने जे.डी.यू. अपना राजनीतिक विस्तार बिहार के बाहर करना चाह रही है और 2014 के चुनाव में अपने बढ़े दबदबे का ऐहसास राष्ट्रीय स्तर पर भी कराने की ख्वाहिशमंद है। 2002 के उत्तर प्रदेश विधानसभा में जनता दल यूनाईटेड के 2 सदस्य थे तो 2007 के विधानसभा में 1 सदस्य मौजूद था। उधर केन्द्र सरकार में कांग्रेस की सहयोगी तृणमूल कांग्रेस ने भी उत्तर प्रदेश के सभी विधान सभा सीटों के लिये उम्मीदवारों की सूची बना रखी है और बताया जा रहा है की तृणमूल तकरीबन 200 सीटों पर चुनाव लड़ने के मूड में है। वैसे इस तरह की चर्चा भी गरम है कि तृणमूल का जे.डी.यू. से गठबंधन हो सकता है। लेकिन जे.डी.यू. और तृणमूल दोनों की ही राष्ट्रीय पार्टी के रूप में वजूद बनाने की महत्वकांक्षा के कारण ये गठबंधन सिर्फ चर्चा के तौर पर ही जारी है। उधर बी.जे.पी. को उत्तर प्रदेश चुनाव में एन.डी.ए. के अहम सहयोगी के अलग चुनाव लड़ने पर बहुत जवाब देने की स्थिति में नजर नहीं आती है। उत्तर प्रदेश के लिये जारी विजन डॉक्यूमेंट में नीतीश कुमार की तस्वीर और बिहार के सुशासन की खास चर्चा कर बी.जे.पी. ने अपने सहयोगी के प्रति तल्खी को कमतर कर दिखाने की कोशिश की है। उत्तर प्रदेश में बी.जे.पी. अभियान समिति के संयोजक कलराज मिश्र कहते हैं कि "सीटों पर तालमेल के अभाव और जे.डी.यू. की महत्वकांक्षा के कारण समझौता नहीं हो पाया लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य में दोनों दल अहम सहयोगी हैं। वैसे भी जे.डी.यू. के नेता ही एन.डी.ए. के संयोजक हैं।" बी.जे.पी. अपने सहयोगी के अलग चुनाव लड़ने पर बहुत नहीं बात करना चाहती है वहीं जे.डी.यू. के नेता खुलकर बात करते हैं जिसमें पार्टी की राष्ट्रीय महत्वकांक्षा साफ झलकती है। अब ये भी देखने की बात होगी की जिन इलाकों में दोनों पार्टियाँ एक दूसरे को सीधी टक्कर दे रही होंगी, इसके नेता कैसे बचाव करते हुये प्रचार करते हैं। इस सबके बीच उत्तर प्रदेश में जे.डी.यू. के भविष्य को लेकर काफी उत्साहित पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव कहते हैं कि "राष्ट्रीय स्तर पर और बिहार में एन.डी.ए.बखूबी मौजूद है पर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात में पार्टी जनता के प्रति नैतिक जिम्मेदारी लेकर मैदाने जंग में है। हमारा मकसद सिर्फ चुनाव लड़ना नहीं है बल्कि विचारधारा के स्तर पर जनहित में आन्दोलन खड़ा करना है।"

बिहार में लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल मुख्य विपक्षी पार्टी है। बिहार की विधानसभा में इसका वजूद बहुत कमतर है। यही नहीं सड़कों पर भी आन्दोलन के बगैर आर.जे.डी. की नैया डगमगा रही है। फिलहाल लालूजी दिल्ली दरबार को खुश करने में लगे हैं। उत्तर प्रदेश में भी पार्टी ने सांप्रदायिक ताकतों का नेस्तनाबूद करने और सेक्यूलर फोर्सेज को मजबूत करने का ऐलान किया है। पहले तो पार्टी के राष्ट्रीय संगठन को प्रतीकात्मक रूप से जिंदा रखने के लिये लगभग 10 सीटों पर लड़ने का प्लान बना रही थी लेकिन कांग्रेस की ओर से थोड़ा संकेत मिलते ही लालूजी एक सीट लेकर खुश हो गये। 2007 के विधानसभा चुनाव में आर.जे.डी. ने करीब 35 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिसमें से 2 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी वहीं करीब 8 से 10 सीटों पर तीसरे नंबर पर रहकर बेहतरीन परफॉर्मेन्स किया था। इस बार कांग्रेस ने लालू यादव के एक समधी जितेन्द्र यादव को गाजियाबाद जिले की विधानसभा सीट से चुनाव में उतारा है और इस बात के भी स्पष्ट संकेत मिलते रहे हैं कि कांग्रेस और आर.जे.डी. के बीच अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। आर.जे.डी. के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष अशोक सिंह कहते हैं कि - "हम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने पर जोर देंगे और भारतीय जनता पार्टी जैसी सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों को कम से कम संख्या पर निबटाने के लिये काम करेंगे।"

बिहार की सियासी पार्टियों में उत्तर प्रदेश में सबसे हास्यास्पद स्थिति रामविलास पासवान की पार्टी लोकजनशक्ति पार्टी की है। एल.जे.पी. ने उत्तर प्रदेश में पिछली मर्तबा करीब 200 सीटों पर चुनाव लड़ा था पर 1 भी सीट जितने में असफल रही थे। मिडिया के हलके या फिर आम लोगों से पूछे तो उत्तर प्रदेश में इसका नामलेवा बामुश्किल से बचा है। अब सुप्रीमों ने 403 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। इस पार्टी का दफ्तर लखनऊ में ढ़ूढ़ना शायद संभव हो जाय पर नेता ढ़ूढ़ना बड़ा ही कठिन है। लगता तो यही है कि रामविलासजी अपने बढ़े वजूद के साथ काँग्रेस में विलय की तैयारी उत्तर प्रदेश चुनाव के बहाने कर रहे हैं।

एक तौर पर कहें तो स्थिति बिल्कुल वैसी ही है जैसी बिहार के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का सभी सीटों पर चुनाव लड़ना। इस बार ये बिहार की सियासी पार्टियाँ उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में हैं। इस तीनों दलों में जे.डी.यू. कुछ ज्यादा कांफिडेन्स में नजर आ रही है और उसके कई सीट जितने की उम्मीद भी लगाई जा रही है। अगर जे.डी.यू. कुछ सीटें जीत लेती है तो त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में अपनी भूमिका तलाश सकती है, साथ ही वोटों का प्रतिशत ठीक रहने की स्थिति में भी ऱाष्ट्रीय पार्टी के तौर पर वजूद बनाये रखने में मदद मिलेगी। लेकिन जे.डी.यू. की पूरी रणनीति के पीछे 2014 के आगामी लोकसभा चुनाव के बाद की भूमिका है जिसमें पार्टी बेहतर व बड़ी भूमिका निभाना चाह रही है और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राष्ट्रीय स्तर पर भावी राजनीतिक महत्वकांक्षा का दिल्ली की ओर रास्ता भी उत्तर प्रदेश से ही हो कर जाता है। जे.डी.यू. से सीधे तौर पर बी.जे.पी. को थोड़ा घाटा होता दिखता है क्योंकि अगर ये दोनों दल साथ लड़ते तो बी.जे.पी. को भी सेक्युलर पार्टियों के मुकाबले खुद को रखने में मदद मिलती। लेकिन जब जे.डी.यू. अकेले बूते लड़ रही है तो बी.जे.पी. सहित सेक्यूलर दलों को भी उन इलाकों में खामियाजा भुगतना पड़ सकता है जहाँ हार जीत का अंतर कम होगा। आर.जे.डी. कांग्रेस के समर्थन में चुनाव मैदान में नहीं है लेकिन इसका बहुत लाभ कांग्रेस को होगा ऐसा भी नहीं है। कांग्रेस ने लालू यादव के नये समधी जितेन्द्र यादव को चुनावी मैदान में उतारा है तो ये बात भी चर्चे में है कि लालू क्या कांग्रेस के पक्ष में उत्तर प्रदेश में प्रचार करेंगे। अगर ऐसा होता है तो शायद कांग्रेस को कुछ लाभ भले न मिले लेकिन राहुल के बाद लालूजी के नाम पर कुछ भीड़ जुटाने में जरूर मदद मिलेगी। राज्य के राजनीतिक हालात में आम जनता समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच सीधी पहले- दूसरे नंबर से लिये टक्कर की संभावना देख रही है ऐसे में मुलायम और अखिलेश को छोड़ जनता - खासकर यादव-अल्पसंख्यक-पिछड़ा मतदाता लालू को सुन सकते हैं पर लालू के नाम पर उत्तर प्रदेश में वोट करेंगे इस आसार दूर- दूर तक भी नहीं दिखता है। उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम जो भी हो, बिहार की सियासी पार्टियों की राष्ट्रीय राजनीति मे दशा-दिशा और भविष्य जरूर सुनिश्चित होने जा रहा है। साथ ही इस विधानसभा चुनाव का परिणाम ये भी तय करेगा की क्या जे.डी.यू. और एल.जे.पी. दोनों उत्तर प्रदेश के चुनाव में सिर्फ वोटकटवा की भूमिका में थे। तबतक लालू- रामविलास व शरद-नीतीश के हर कदम पर इन दलों के नेताओं और समर्थकों ने टकटकी लगा रखी है तो विरोधियों ने भी नजर पैनी कर रखी है।
(मैग्निफिसेन्ट न्यूज के 'जनवरी' अंक में प्रकाशित।)

Sunday, February 5, 2012

हिना फिर आना लेकिन....

दिल अब भी हिनहिना रहा है। ऐसा लगता है कि आदमी न हुये घोड़ा हो गये या फिर घुड़दौड़ के जॉकी हो गये। जब से हिना जी भारत घुम कर गयी हैं, 100 करोड़ हिन्दुस्तानियों में से आधे तो जरूर हिनहिना चुके हैं। हफ्ता से ज्यादा होने जा रहा है लेकिन दिल की धुकधुकी से हिना का ख्याल नहीं जा रहा है। जनाब बिस्तर पर सोने गये तो भूल गये की बगल में भी पत्नी सोयी है। रात सपने में हिना का नाम बुदबुदाने लगे या फिर यूँ कहिये की हिनहिनाने लगे। पत्नी ने सुना तो सुबह तड़के उठकर हाथों में हिना सजा ली। जनाब के उठते ही मचल उठी की ऐ जी! देखो तो रंग कैसा चढ़ा है हिना का। बेचारे सर पकड़ कर बैठ गये, कैसे कहें कि ये हाथों की हिना नहीं दिल की धुकधुकी में बैठी हिना का रंग उनपर इस कदर चढ़ा हुआ है कि बता भी नहीं सकते।

बात अब छुपाये भी नहीं छुपने वाली जनाब। ये बात किससे छुपी है कि हिन्दुस्तान में अगर किसी को दोजख में भेजने की बददुआ देनी हो रेलगाड़ी की तरह पाकिस्तान भेजने की गाली दे डालते हैं। अब ये पाकिस्तान ने भी बड़ा गजब का पब्लिक डिप्लोमेसी खेला है कि जब से हिना को विदेशमंत्री बना कर भारत में भेजा है पूरा हिन्दुस्तान उन्हे जन्नत ही हूर, चश्मे बददुर बताने पर तुला हुआ है। उधर मोहतरमा कश्मीर और अलगाववादियों को तूल देने में लगी थी। और इधर हम उनपर पुरानी महबूबा की तरह दिल और जान लुटाये फिरते रहे।

यही नहीं विदेशमंत्री कृष्णा साहब ने जब से हाथ मिलाया है हिना से, पूरा हिन्दुस्तान उन्हे कोंसने पर तुला है। जिस किसी ने टेलीविजन पर ये तस्वीर देखी वही जानता है कि कृष्णा देर तक हिना का हाथ पकड़ हिला रहे थे, माफ किजियेगा हिनहिना रहे थे। जैसे बॉलीवुड का हीरो समझ कर गाना गा रहे हों- छोड़ेंगे न तेरा साथ ओ साजन सातो जनम तक। कृष्णा हाथ मिला रहे थे तो जनाब के दिल पर साँप लोट रहा था और पेट में घिरनी नाच रही थी। उसी वक्त एक मित्र ने जल- भुन कर फोन किया कि यार ! ये हिना लगता है कृष्णा से इम्प्रेस हो गयी है। काश! किसी ने बता दिया होता कि कृष्णा के सर पर बाल नहीं बिग है। हद है भाई! अच्छा है की हिना अपने पड़ोस में है, पता नहीं यहाँ होती तो क्या गुल खिलता।

इतना दर्द-ए-दिल दे दिया कि मन यही कहता है कि अच्छा हुआ हिना जो तुम वापस पाकिस्तान चली गयी। ओ हिना! फिर हिन्दुस्तान आना लेकिन इसबार सरहद की दीवार तोड़कर आना, कई दूसरी हिनाओं को लेकर आना और मुहब्बत का पैगाम लेकर आना। तबतक हम तुम्हारा इंतजार-ए-मुहब्बत करेंगे।
(पाकिस्तान की विदेशमंत्री हिना रब्बानी खार के स्वागत में लिखा गया पुराना लेख)

Thursday, December 22, 2011

छोटे राज्यों के गठन को लेकर उभरे सवाल

!!!क्या नीतीश कुमार मगध सम्राट बनेंगे !!!

दो भाईयों के बीच संपत्ति विवाद हुआ। आपस में जमीन- जायदाद का बँटवारा कर लिया। एक ने माँ को रख लिया और दूसरे ने पिता को रख लिया। जब सब कुछ बँट गया तो एक दूधारू गाय बची। एक भाई बेचने के पक्ष में तो दूसरा रखने के पक्ष में था। फिर दोनों के बीच इतनी तनातनी थी कि अगर एक उस गाय को रख भी ले तो दूसरा मुआवजा लेकर शांत हो जाने को तैयार नहीं था। जब सभी हार गये तो दोनों बेवकूफ जिद्दी भाईयों ने उस गाय का बँटवारा अपना दिमाग लगाकर कर लिया। एक भाई गाय के पेट के उपरी भाग का मालिक बन बैठा सोचा कि गाय तो मुँह से ही खाती है और उसके गले की रस्सी हाथ में रहेगी। दूसरा भाई पेट के नीचे के भाग का मालिक बन गया सोचा की दूध निकालेंगे तो खायेंगे और कमाई भी होगी। लेकिन दोनों भाई की मति ऐसी मारी गयी थी कि सहमति और सामुहिक लाभ की भावना जैसी कोई बात उनके बीच नहीं थी। जब एक भाई गाय को खाना खिलाने की कोशिश करता तो दूसरा उसकी पूँछ पकड़ कर हड़का देता और जब दूसरा दुध निकालने की कोशिश करता तो पहला गाय के गले की रस्सी खीचने लगता। कुछ मिलाकर स्थिति ये बनी की गाय ने दूध देना बंद कर दिया और एक दिन उसकी जान चली गयी। फिर लम्बे समय तक दोनों भाई खुद को बड़ा दिखाने और एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में परेशानियों से घिरते चले गये।


ये तो एक महज कहानी भर है पर इसकी चर्चा का संदर्भ इनदिनों देश में छोटे राज्यों को लेकर चल रहे बहस से भी जुड़ा है। भारत की विडंबना ये है कि एक ही देश में जितनी विभिन्नता के तत्व मौजूद है उतना शायद ही किसी और देश में होगी। भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भाषाई, जाति- धर्म, संप्रदाय इन सबके आधार पर लोगों का समूह, आस्था व मान्यता तय है जो बड़े वैचारिक बहस का हिस्सा है। स्पष्ट तौर पर कहे तो रियासतों में बँटे इस देश का एकीकरण भले ही हो गया लेकिन उपराष्ट्रीय भावनायें भारत में अब भी मौजूद है। कई बार ये भावनायें जब उफान मारती है तो नये राज्य की माँग जोर पकड़ने लगती है। इसका एक बड़ा संदर्भ राज्यों के भीतर कई इलाकों में मौजूद क्षेत्रीय विषमता और असंतोष से भी है। 11 साल पहले देश में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन हुआ । इस विभाजन की खास बात ये रही की इन इलाकों की क्षेत्रीय विषमता को लेकर लम्बे समय से चले आ रहे बहस और जन आंदोलन के बाद इन राज्यों का बनाने का निर्णय लिया गया। इसी तरह तेलंगाना राज्य का सपना भी अगर पूरा होता है तो ये जनआंदोलन के दबाव के कारण ही संभव दिखायी देता है।


हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने बहुमत के बूते राज्य के बँटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में सिर्फ 11 मिनट के भीतर पास कर दिया। ये जनता की आकांक्षा को फलीभूत करने की कम और भावी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक पासा फेंकने की कवायद ज्यादा है। उत्तर प्रदेश को चार भागों में बाँटने की मायावती के इस बुलंद हौसले वाले निर्णय की तुलना लालू यादव के सत्ता में काबिज रहने के लिये बिहार बँटवारे के फैसले से की जा सकती है। झारखंड के वजूद की माँग का ऐतिहासिक संदर्भ में महत्व व जरूरत के बावजूद लालू यादव ने कभी भी इसे तवज्जो नहीं दी, खासकर जबतक वे मजबूत बने रहे। लेकिन जैसे ही उनका सामाजिक समीकरण कमजोर पड़ता दिखाई पड़ा, अपनी लाश पर झारखंड बनने की दुहाई देने वाले लालूजी ने पलभर में सहमति दे डाली। भले ही राज्यों का वजूद में आना किसी दल के लिये राजनीतिक पासा हो सकता है लेकिन राज्य के गठन- पुनर्गठन का सवाल क्षेत्रीय- भाषाई- सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा है।


छोटे राज्यों के समर्थन में एक बड़ी दलील क्षेत्रीय आर्थिक विषमता को लेकर है तो दूसरा प्रशासनिक नियंत्रण और शासन के सफल संचालन को लेकर भी है। इन दलीलों पर 11 वर्ष पहले नक्शे पर उभरे राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल का आंकलन करें तो थोड़ी खुशी और बहुत सारे गम जैसे भावना मन में उभरती है। उत्तरांचल ने पर्यटन, बिजली तथा अन्य क्षेत्रों में प्रगति की है जो यहां की पुरानी ऐतिहासिक व भौगोलिक पृष्ठभूमि से भी जुड़ा है। वहीं छत्तीसगढ़ और झारखंड नक्सल गतिविधियों के कारण हाल के वर्षों में ज्यादा चर्चित हुआ। छत्तीसगढ़ में कुछ प्रगति की बेहतरीन कोशिशें हुई है लेकिन झारखंड की वर्त्तमान त्रासदी अफसोस पैदा करती है। इसके कुल 24 जिलों में से कहीं कम-कहीं ज्यादा 22 जिले नक्सल प्रभावित है। इसकी आर्थिक राजधानी जमशेदपुर की विडंबना देखिये तो स्टील सिटी के 5 किलोमीटर के रेडियस में किसी भी ओर जायें तो आमलोगों के चेहरे पर गरीबी का आलम देखा और महसूस किया जा सकता है। छोटानागपुर और संथाल परगना के इलाके में टीनेन्सी एक्ट की धज्जियाँ उड़ाने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं। बड़ी कंपनियों के लिये जमीन का अधिग्रहण हो रहा है जिसमें जनता की आर्थिक भागीदारी और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों को ताक पर रख दिया गया। राजनीतिक उथल-पुथल और प्रशासनिक विफलता ने इस छोटे से राज्य के भीतर क्षेत्रीय असंतोष पैदा कर दिया है और यहाँ से भी नये राज्य की माँग की सुगबुगाहट होने लगी है।


बिहार की बात करें तो यहाँ मिथिलांचल, मगध, अंगप्रदेश व भोजपुर राज्य की माँग यदा- कदा होती रही है। उत्तर प्रदेश को चार भागों- पूर्वांचल, अवध प्रदेश, बुन्देलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश या हरित प्रदेश में विभाजित किये जाने पर राजनीतिक बवाल शुरू है। इधर नीतीश कुमार भी छोटे राज्यों की वकालत कर चुके हैं लेकिन उनकी ये माँग भी गौर करने लायक है कि इन छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुये किसी भी राज्य की विधानसभा में कम से कम 100 सीटों सुनिश्चित किया जाये। उड़ीसा, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भी असंतोष की सुगबुगाहट होने लगी है जो खबरों की सुर्खियों से बाहर है। पश्चिम बंगाल में चौबीस परगना, उड़ीसा के तेलुगु भाषी इलाके, महाराष्ट्र में विदर्भ ये सारे इलाके राजनीतिक असंतोष जाहिर कर रहे हैं। वैसे राज्य विभाजन को लेकर सबसे सुलगता सवाल तेलंगाना की माँग तो केन्द्र के लिये एक चुनौती से कम नहीं है। इसी बीच छोटे राज्यों में भ्रष्टाचार का उदाहरण देखना हो तो उत्तर-पूर्व राज्यों को देखा जा सकता है। एक और दो सासंदो वाले राज्य होने के बावजूद वहाँ नगा, कुकी और अन्य जातीय गुटों के बीच मतभेद और संघर्ष की खबरे हकीकत बताने के लिये काफी है। यहाँ तक की जम्मू और कश्मीर को तीन भागों लद्दाख, जम्मू और कश्मीर घाटी में विभाजन के लिये राजनीतिक सवाल वहाँ के नेता उठा चुके हैं।


अब राज्य बने नहीं की हकीकत में न सही राजनीतिक लतीफेबाजी में मुख्यमंत्री भी बनाये जाने लगे हैं। हुआ यूँ कि एक सज्जन ट्रेन में बैठे बात कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद चार नये बने राज्यों अवध प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड व पश्चिम उत्तर प्रदेश की सत्ता क्रमश: मुलायम सिंह, अमर सिंह, मायावती व अजीत सिंह को मिल जायगी । तो वहीं बैठे एक बिहारी बन्धु ने कहा कि अच्छा है बिहार को भी चार भाग में बाँट दिया जाय तो लालू यादव, रामविलास पासवान, जगन्नाथ मिश्र भी मुख्यमंत्री बन जायेंगे और नीतीश कुमार मगध के सम्राट हो जायेंगे। वहीं बैठे एक कांग्रेसी सज्जन ने तुनकते हुये विरोध किया कि वाह भाई वाह। उत्तर प्रदेश- बिहार को बाँटकर 8 मुख्यमंत्री बने और हमारे हाथ कुछ भी नहीं। सब आपही लोग ले लेंगे तो कांग्रेस क्या बजायेगी झुनझुना।


लतीफेबाजी और राजनीति की लिफाफेबाजी के बीच छोटे राज्यों का मुद्दा एक गंभीर सवाल है जो किसी एक क्षेत्र का नहीं बल्कि राष्ट्रहित से जुड़ा मसला है जिसपर विचार और बहस अविलंब जरूरी है।। सवाल आम जनता के लिये क्षेत्र, भाषा, संस्कृति की अस्मिता का है या फिर आर्थिक विषमता से उपजे असंतोष का है। इन्ही के बीच नेताओं के अपने स्वार्थ में राजनीतिक गोटी फिट करने का भी है। लेकिन एक बड़ा सवाल भारत के अपने एक संगठित राष्ट्र के रूप वजूद का भी है क्योंकि देश सिर्फ सरहद से नहीं इसमें रहने वाली आवाम के जज़्बे, जोश और भावनाओं से बनता है। राज्य विभाजन के लिये वैसे कमीशन पहले भी बने लेकिन देशभर से अलग राज्य की उठती माँग को देखते हुये और जनभावनाओं का ख्याल रखते हुये नये राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना एक बड़ी तात्कालिक जरूरत बन चुकी है।

('मैग्निफिसेन्ट न्यूज' के दिसंबर अंक में प्रकाशित।)

नीतीश सरकार के छह साल और सुशासन के नये जुमले की तलाश

बिहार विकास के मार्ग पर अग्रसर है - आज की तारीख में ये बात बिहार के संदर्भ में सच जरूर मालूम पड़ती है, अगर लालू यादव के दौर की तुलना में कोई बयान जारी करना हो। जाहिर है कि सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार को लेकर हर साल पेश किया जाने वाले आकड़ों की बदौलत राज्य सरकार के हौसले बुलंद नजर आते हैं। सुशासन का जुमला तो पिछले छह सालों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जुबान से फिसल कर मिडिया के सहारे अब लोगों की जुबान पर चढ़ चुका है।


कानून- व्यवस्था के फ्रंट पर नीतीश सरकार ने जनता का वाकई दिल जीता है और लोगों में व्याप्त भय का वातावरण कम है। लेकिन सरकारी आकड़ों में बढ़ता अपराध भविष्य के लिये कई चिंता पैदा करता है। दलित उत्पीड़न और पुलिसिया जुल्म की कई घटनायें खबरों की सुर्खिया बन चुकी हैं तो हत्या, अपहरण, फिरौती और बलात्कार की कई घटनाओं ने जनमानस को झकझोरा है। नये संवेदनशील डी.जी.पी. अभयानंद की छवि और मेहनत को लेकर बेहतर उम्मीद सभी को है।


सड़क को लेकर राज्य सरकार ने काम बेहतर किया है तो बिजली के क्षेत्र में वर्त्तमान की चिंता बनी हुई है। वैसे भविष्य के लिये बहुत थोड़ी सी उम्मीद बँधती दिखाई देती है। बियाडा जमीन विवाद ने राज्य सरकार की औद्योगिकरण नीति पर सवाल खड़ा किया है और निवेश का जमीनी धरातल पर उतरना बहुत संभव नहीं हो पाया है। पलायन को लेकर सरकार के दावे में या फिर आकड़ों में बहुत दम नहीं दिखाई देता है। दशहरा, दिवाली और छठ के अवसर पर देशभर में बिहारियों के पलायन और विस्थापन की त्रासदी का सहज अनुभव किया जा सकता है।


शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नये संस्थानों का खुलना बेहतर संकेत है लेकिन पुराने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय कॉलेज, शोध संस्थान ध्वस्त पड़े हैं। राज्य के सभी विश्वविद्यालय- कॉलेज में 50 फिसदी शिक्षकों की कमी है तो सरकार इस टोटे को रेशनलाईजेशन प्रक्रिया की खानापुर्ति से निपटना चाह रही है। शिक्षकों के वेतन, पेंशन, प्रोमोशन के मामले के बीच छठे वेतनमान को लेकर तमाम विसंगतियों से शिक्षक जुझते नजर आते हैं। वहीं यू.जी.सी. के निर्देशानुसार उम्रसीमा 65 किये जाने के लेकर सरकार गेंद कोर्ट के मामले या फिर राजभवन पर की ओर उछाल देती है। एकेडमिक सेशन के नाम पर सिर्फ परीक्षाएं सही समय पर लेने की खानापूर्ति की जाती है जबकि पढ़ाई के मामले में राज्यभर के विश्वविद्यालयों में कमोबेश एक ही तरह की तस्वीर नजर आती है। लिहाजा अच्छी शिक्षा के लिये राज्य के बाहर जाने वाले का सिलसिला थमता नजर नहीं आता है।


प्राथमिक, और माध्यमिक शिक्षा गुणवत्ता की मार झेल रहा है। बिहार सरकार ने हाल ही में राहत की साँस ली जब सुप्रीम कोर्ट ने 34, 540 शिक्षकों की नियुक्ति के लिये वरीयता सूची को हरी झंडी दे दी। अब शिक्षक पात्रता परीक्षा की प्रक्रिया के तहत बेहतर शिक्षकों की उम्मीद कुछ बँधती है। पूर्व में सर्टिफिकेट जमा कर नियुक्त शिक्षकों की परीक्षा लेकर सरकार ने पात्रता सुनिश्चित कर दी है। अब उनकी ट्रेनिंग की व्यवस्था कर दी जायगी। लेकिन इन शिक्षकों में अधिकांश के ज्ञान और विद्वता की मार बिहार के सरकारी स्कुलों के बच्चे आने वाले दशकों तक भुगतेंगे। वैसे इस मामले में भी संभावनाओं की सरकारी तस्वीर सिर्फ कागजी सुकून भर देती है।


स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार के प्राथमिक केन्द्रो में जान फूँकने की बेहतरीन कवायद हुई है। अस्पतालों में कुछ दवायें जो मुफ्त में मिलनी शुरू हुई थी उसपर ग्रहण भी लगता दिख रहा है, इसकी बानगी पी.एम.सी.एच. में भी देखी जा सकती है। पटना के एम्स का इंतजार सबको है तो आई.जी.आई.एम.एस. को उत्कृष्ट बनाने की कवायद में भी वक्त लग रहा है। इमरजेन्सी में आज भी मरीजों को बिहार के दुसरे कोने से पटना भेजने की परंपरा जारी है। स्पष्ट है की प्राथमिक केन्द्रों को छोड़ दें तो पटना के बाहर उत्कृष्ट स्तर की सुपर स्पेशलिटी स्वास्थ सुविधाओं की कमी से लोगों की मौत का सिलसिला जारी है।


केन्द्र सरकार और विपक्ष के निशाने पर ग्रामीण विकास विभाग की योजनाये मनरेगा, इंदिरा आवास रही हैं। युवा मंत्री नीतीश मिश्र की तरफ के कई बेहतर प्रयास किये गये है ताकि अनियमितताओं को रोका जा सके। सफलता भी मिली है लेकिन नीचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के घुन ने आम जनता को तबाह कर रखा है। इसी तरह का कुछ प्रयास खाद्यान्न व उपभोक्ता विभाग में किया गया है। गैस की बुंकिग और कालाबाजारी पर कुछ हद तक अंकुश लगा है, जनवितरण व्यवस्था में जी.पी.एस. जैसे तकनीकों के इस्तेमाल कर बेहतर बनाने की कोशिश जारी है। कृषि योजनाओं और तकनीकों को लेकर जनता के बीच सरकार ने जागरूकता बढ़ाने का काम बखूबी किया है। लेकिन बाढ़ और सुखाड़ झेलने को त्रस्त जनता उत्पादन और लागत के बीच के अंतर को मुनाफे में तब्दील नहीं कर पा रही है।


राजधानी पटना में मिडिया की तमाम सुर्खिया बटोर रही सरकार से महज से लगभग 10- 15 किलोमीटर दूर मनेर प्रखंड में आम जनता सरकार की उपलब्धियों के लिये पूरे नंबर देने को तैयार नहीं दिखी। लोग कई मामलों में नीतीश कुमार की व्यक्तिगत प्रशंसा भले करते हों लेकिन उनके सरकार के प्रशासनिक पदाधिकारियों के प्रति अच्छी राय नहीं है। आम जनता मानती है राजधानी पटना और कुछ जिला केन्द्रों को छोड़ दें तो अनुमंडल, प्रखंड, अंचल कार्यालय भ्रष्टाचार के मामले में चारागाह बन चुके हैं। बिजली संकट के दौर में डीजल कुपन किसानों तक पहुँचती इससे पहले प्रखंड कार्यालय से ही गायब हो गयी। खाद, बीज वितरण में सरकारी प्रयोग के बावजूद किसान संतुष्ट नहीं दिखते हैं। हाल ही में आये बाढ़ में सरकारी कागजों में अनेक नाव चलते रहे और राहत भी बँटे पर हकीकत में पिड़ितों तक नहीं पहुँचे। आम जनता की प्रखंड कार्यालयों और थानों के बारे में राय सिर्फ अफसोसजनक है। ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य के मुखिया के तमाम वादे और नेक इरादे जिसकी गूँज जनता के कानों तक पहुँच रही है, अधिकारियों के कानों में उसकी जूं भी नहीं रेंगती।


मनेर से आगे बढ़े तो बिहटा प्रखंड का इलाका है जो पटना राजधानी से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ राज्य सरकार ने तकरीबन 2200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया है। इन्ही जमीनों पर आई.आई.टी. के अलावा कई दूसरे शिक्षण संस्थान और उद्योग खुलने हैं। स्थानीय किसानों से बातचीत करने पर पता चलता है कि अधिग्रहण में कई तरह की अनियमिततायें सामने आ रही हैं। जमीन के मुआवजे की राशि में अंतर है तो कई लोगों की जमीन का बड़ा भूखंड अधिग्रहित कर कुछ डिसमिल जमीन बाहर कर दिया गया है। इन जमीनों पर आश्रितों की सूची स्पष्ट तौर पर सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया है और न ही अधिग्रहण कानून के मुताबिक इन लोगों का राहत राशि और सहायता दी गई है। तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद के उद्घाटित राजेन्द्र गौशाला की करीब 70 एकड़ जमीन एच.पी.सी.एल. को दी गई है, लेकिन इस जमीन पर करीब 50 सालों से खेती कर जीवन- यापन कर रहे 40 से अधिक परिवारों को विस्थापित कर दिया गया है। यही हाल बिहटा चीनी मिल का है जिसे फिर से स्थापित करने की कोशिश के बजाय दूसरे कारखानों के लिये परिसर मुहैया कराया जा रहा है। जबकि इस चीनी मिल के विस्थापितों को नये खुले कारखाने में समायोजन की नीति स्पष्ट नहीं की गई है। इन्ही इलाकों में करीब 7-8 कारखाने खुले है जिनमें स्थानीय भूमि विस्थापितों की स्थायी नौकरी की गारंटी नहीं है। वर्त्तमान में ये सारे आकड़ों के लिहाज से सुखद एहसास दे रहे हों लेकिन भविष्य में इन इलाकों में उत्पन्न होने वाली आर्थिक विषमता सामाजिक असंतोष का कारक बनने जा रही है। इन उदाहरणों से लगता है कि राज्य की अर्थव्यवस्था को कायापलट करने और औद्योगिकरण की नीति में स्थानीय लोगों की अर्थव्यवस्था में भागीदारी की गारंटी नहीं है।


हाल ही में आये नये आँकड़े के अनुसार राज्य में विकास दर की रफ्तार 14 फीसदी है वहीं दूसरी हकीकत ये भी है कि कृषि का विकास दर ऋणात्मक में है जिसपर राज्य की 70 फीसदी से ज्यादा आबादी आश्रित है। इस बार सी.ए.जी. रिपोर्ट में उजागर की गयी खामियाँ अब सरकार और जनता के जेहन से विस्मृत हो चुकी हैं लेकिन हर विभाग में सरकारी योजनाओं में अनियमितता का खुलासा प्रशासनिक कार्यशैली की विफलता की ओर इंगित करता है।


सरकार के दावे, उनकी हकीकत, आरोप- प्रत्यारोप की राजनीति के बीच विपक्ष की उपस्थिति बिहार विधान सभा में कमतर तो है ही, सड़कों पर भी इनकी मौजूदगी अवसर और परिस्थितियों की मोहताज हो चुकी है। राम विलास पासवान औऱ लालू प्रसाद यादव पटना में जनता के बीच सक्रीय होने के बजाय दिल्ली दरबार को खुश करने में ज्यादा मशगूल है। जाहिर है की एल.जे.पी. और आर.जे.डी. ने नेताओं और समर्थकों की मायूसी समझी जा सकती है। कुंद धार विपक्ष के कारण एक ध्रुवीय सी लग रही राज्य में राजनीति का पलड़ा नीतीश कुमार की ओर ही झुका हुआ है। ये एक बड़ा कारण है कि वर्त्तमान में बिहार की राजनीति का तथ्यपरक विश्लेषण यानि वैल्यू जज़मेंट संभव नहीं दिखता है।


बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के कालाधन विदेश से वापस लाने और जनलोकपाल कानून लागू करने के अभियान के दौर में बिहार सरकार ने भी भ्रष्टाचार विरोधी अभियान छेड़ रखा है। सेवा का कानून लागू होने के बाद जनसुविधाओं में बेहतरी की गुंजाईश की जा रही है। सरकार की जीरो टोलेरेन्स नीति के बावजूद नीचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार की चर्चा जो आम जनता के बीच है शायद नीतीश कुमार जी के कानों तक भी पहुँच रही होगी। इन तमाम चर्चाओं के बीच बिहार सरकार अपनी दूसरी पारी का एक साल पूरा करने जा रही है। 24 नवम्बर को नीतीश सरकार की दूसरी पारी का एक साल पूरा होने के काफी पहले से ही सभी मंत्रालयों और सरकारी महकमों में उपलब्धियाँ जुटाने और गिनाने की होड़ लगी हुई है जो जनता के सामने पेश किया जायगा। कोई शक नहीं की एक साल की उपलब्धियाँ जब जनता के सामने रंगीन कलेवर में पेश होंगे तो सरकार के हौसले कुछ ज्यादा बुलंद हो चुके होंगे और संभव है विपक्ष कुछ और हाशिये पर जाता दिखेगा।


किसी ने भी अगर गौर किया हो तो नीतीश सरकार के पहले कार्यकाल में शासन की विफलता का ठीकरा लालू यादव और उनकी सरकार पर फूटता रहा तो इस दूसरे कार्यकाल के शुरू होते ही निशाना केन्द्र सरकार बनी। अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर राज्यभर के दौरे पर निकले हैं। तय है कि जब ये दौरा पूरा होगा तो सुशासन का नया जुमला गढ़ा जा चुका होगा। राजनीति की मजबूरी है कि एक जुमले से ज्यादा दिन तक काम नहीं चलाया जा सकता, जाहिर है कि नये नारे और प्रतीकों की तलाश बिहार सरकार को होने लगी है।

('मैग्निफिसेन्ट न्यूज' के नवंबर अंक में प्रकाशित )