शिक्षा की बात
जब भी चलती है तो अक्सर लोगों को ध्यान उच्च एवं उच्चतर शिक्षा की ओर जाता है जो
शिक्षा पर बहस के मुख्य केन्द्र बिंदू बनते रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा जो कि पूरी
शिक्षा व्यवस्था के लिये रीढ़ का काम करते हैं उसपर कम बहस होता रहा है। लेकिन
सर्वशिक्षा अभियान या फिर साक्षरता मिशन जैसे कार्यक्रमों के महत्व में आने के बाद
प्राथमिक शिक्षा का सवाल ज्यादा प्रासंगिक हुये हैं। यह बात बौद्धिक- अकादमिक विमर्श
से परे आम जनता की शैक्षणिक जरूरतों और सरकार की शिक्षा को लेकर प्राथमिकताओं के
संदर्भ में ज्यादा बेहतर तरीके से समझी जा सकती है। 
अगर बिहार में
वाकई सुशासन है तो आर्थिक कुप्रबंधन कैसे है जिसका हवाला पिछले 8-9 सालों के
सी.ए.जी. रिपोर्ट के अध्ययन से स्पष्ट पता लगता है और फिर शैक्षणिक अराजकता का
माहौल कैसे है? देश- दुनिया में आंकड़ों की
बाजीगरी की बदौलत वर्त्तमान सरकार ने चाहे जितनी भी ब्रांडिंग की हो लेकिन
स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी तमाम सवालो के बीच सिर्फ शिक्षा का सवाल अकेले इतना
भारी है जो बिहार में कुशासन का सबसे बड़ा प्रमाण कहा जा सकता है। बिहार सरकार के
शिक्षा को लेकर सार्वजनिक किये गये आंकड़ो पर भी सवाल खड़ा होता है क्योंकि किसी
भी बड़े निष्पक्ष अध्ययन, सर्वे या रिपोर्ट में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी
परिवर्तन की बात नहीं की गई है। साईकिल, पोशाक, स्कॉलरशिप योजना- जिसकी दुहाई दी
जाती थी, उसमें तमाम अनियमितताओं के बाद लाभान्वितों के नाम पर फर्जीवाड़ा सामने
है। प्रारंभिक सफलता के बाद ये योजनायें भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ चुकीं हैं। जब
भी इन योजनाओं के तहत साइकिल- पोशाक- छात्रवृति का बँटवारा करने की बात आती है
बिहार भर के तमाम स्कुलों में हंगामे, तोड़फोड़, शिक्षकों के खिलाफ आक्रोश- मारपीट
की खबर सुर्खियों में होती है। मिड-डे मिल योजना पिछले 9 सालों में व्यवस्थित नहीं
हो सकी और किसी भी स्तर की शिक्षा में गुणवत्ता के दावे ने दम तोड़ दिया है। जाहिर
है कि ड्रॉप-आउट की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। शिक्षा के आकड़ों पर सवाल इसलिए
भी उठाना लाजिमी है कि स्कुलों के रॉल या अटेन्डेन्स रजिस्टर में फर्जी नामों की
खानापूर्ति की जा रही है। एक ही बच्चे का नाम कई स्कुलों में है या फिर उनका नाम
दर्ज है जो वास्तव में हैं ही नहीं। यानि की योजनाओं में भ्रष्टाचार के पोषण के
लिये अधिकारियों के मिलीभगत से झूठे नाम दर्ज किये जा रहे हैं साथ ही सरकार के
दावे एवं हवाई मानदंड को पूरा दिखाने के लिये ये फर्जीवाड़ा उपरी संरक्षण में चल
रहा है। लेकिन यहां पर भी शिक्षक कम दोषी एवं दबाव में ज्यादा नजर आते हैं और
व्यवस्था एवं उसके संचालन करने वाले नेता- अधिकारी ज्यादा बड़े आरोपी हैं।

हाल ही में 3 सितम्बर, 2014 को पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में एक शिक्षक अदालत का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में बिहार भर से 8 से 10,000 नियोजित शिक्षक पटना पहुँचे थे। इसी जगह पर अक्सर राजनीतिक कार्यक्रम होते रहते हैं जिसमें भीड़ जुटाई जाती है परन्तु उपस्थित शिक्षक समूह और उनके जोश-जज्बे-तेवर को देखकर एक बात जेहन में आई कि बिहार का यह एक बहुत बड़ा सोशल- पॉलिटिकल युवा समूह है जिसमें बड़ी क्षमता है। इस बड़ी ताकत का सकारात्मक इस्तेमाल बिहार में बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करने में जरूर की जानी चाहिये। इस कार्यक्रम के अगले दिन के अखबारों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि शिक्षा के सवाल को लेकर बिहार की मिडिया का रूख क्या है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, आज- अखबार ने इस खबर को अच्छी-बुरी जो भी हो कवरेज दी। लेकिन प्रभात खबर में एक शब्द भी नहीं छपा वहीं दैनिक हिन्दुस्तान में इस खबर को संक्षिप्त खबरों की तरह मुद्दे गौण करके छापा गया। सवाल है कि कोई भी 8-10 हजार का सामाजिक समूह जो लोकतंत्र में शिक्षा या आवाम से जुड़े किसी खास मुद्दे को लेकर एकजुट होता हो सभा या प्रदर्शन के लिये उसको मीडिया कैसे खबरो में जगह देने से वंचित रख सकती है और खबरो में जगह पाने से इन समूह या मुद्दों को कैसे खारिज कर सकती है। जस्टिस काटजू ने कुछ वर्ष पहले अगर कहा कि बिहार में मीडिया सेन्सरशिप है तो उसपर सत्ता से जुड़े लोगों ने कड़ा विरोध जताया लेकिन बिहार की मीडिया का तथ्यपरक विश्लेषण करें तो काटजू साहब के बात की सत्यता या पेड न्यूज की बात आज भी कई अखबारों के संदर्भ में सिद्ध की जा सकती है। पटना की कई घटनाओं, धरना या प्रदर्शन की खबर कई अखबारों के पटना संस्करण में नहीं छपती है लेकिन दूसरे जिलों के संस्करण में छपती है। कोई खबर किसी संस्करण में पहले पन्ने की सुर्खियाँ बनती है तो दूसरे संस्करण में नदारद है। इसी तरह हत्या, बलात्कार जैसी घटनाओं और बिहार भर में चल रहे जनहित से जुड़े आन्दोलनों को लेकर भी बिहार के अखबारों का यही रवैया है। विभिन्न संस्करणों वाले ये अखबार सरकार के पक्ष में खबरों की बैलेंसिंग करते नजर आते हैं। उदाहरण के लिये अगर भागलपुर या मोतिहारी में बलात्कार की नृशंस घटना घटती है तो क्या वह पटना या गया के लोगों के लिये पॉलिटिकल ओपिनियन बनाने के लिहाज से मायने नहीं रखती है? सूचना क्रांति के दौर में जनहित से जुड़े मुद्दे पर सूचना के प्रवाह को रोकने और सरकारी भोंपू के तौर पर मीडिया के इस्तेमाल किये जाने के उदाहरण लोकतंत्र में एक साजिश से कम नहीं है। इन सारे अध्ययनों के बाद अब अखबारों के सलेक्शन को लेकर भी जनता को जागरूक होने की जरूरत है कि अखबार क्या पढ़ाना चाहते हैं, अखबार क्या लिखता- छापता है, कहीं अखबार सरकार या किसी इन्ट्रेस्ट- लॉबी ग्रुप का भोंपू बनकर अनर्गल की बातें हमारे मन- मस्तिष्क में प्रवाहित करना- घुसेड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहा है? साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि हम क्या पढ़ना चाहते हैं, हमारे सामाजिक – राजनीतिक हित क्या है, हमारे जनहित के मुद्दों से जुड़े संघर्ष, आन्दोलन पर अखबार का रूख पक्षपाती तो नहीं है? लोकतंत्र में यह अब काफी महत्वपूर्ण हो गया है जिसको लेकर बिहार की जनता को भी शीघ्रता से जागरूक होने की जरूरत है अन्यथा गलत-अनर्गल और दूसरों के पक्ष- हित की बात पढ़ते- लिखते- सुनते एक दिन हम सभी दूसरों के प्रचारक बनकर घुमते नजर आयेंगे और हमारे अपने हक- हकूक की बातें गौण हो जायेंगी। देशभर में ऐसी कई घटनायें भी सुनने में आयी हैं जहाँ जनहित के मुद्दे पर अखबारों के घोर पक्षपाती रूख से तंग आकर लोगों ने सामुहिक तौर पर अखबारों की प्रतियाँ खरीद कर अर्थी जुलूस निकालते हुये सार्वजनिक तौर पर जलाने का काम किया है। जाहिर सी बात है कि अखबार जलाने की खबर ये अखबार खुद क्यों छापेंगे भला क्योंकि ये अपनी भद खुद पीटवाने जैसी बात है। लोकंतंत्र में सूचना प्रवाह को बाधित करने की साजिश के खिलाफ यह भी एक रास्ता अख्तियार करना चाहिये या फिर उक्त अखबार के सामुहिक विरोध या बहिष्कार का निर्णय भी लेना चाहिये। साथ ही सोशल मीडिया को ज्यादा से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराकर अपने लोगों के बीच संवाद का एक माध्यम तैयार करना चाहिये।
यह पूरी बातें नियोजित शिक्षकों के सवाल पर हो रही है और इसमें कोई शक नहीं कि ये शिक्षक बिहार सरकार की गलत शिक्षा नीति व युवा नीति का शिकार होकर असंतुष्ट जीवन जीने को मजबूर है। ये लोग स्कुलों में काम सरकारी शिक्षकों के बराबर ही करते हैं लेकिन माथे पर इनके नियोजित का ठप्पा चस्पा कर दिया गया है। वेतन इतना की अपनी पत्नी, बच्चे, माँ- पिताजी, परिवार की नजरों में नौकरी करते हुये बेकार हैं। घर- परिवार में कोई बीमार पड़ जाय, अपने बच्चों को उच्च व अच्छी शिक्षा देना हो, फिर बेटी की शादी करनी हो या सगे- संबंधियों का न्यौता वगैरह करना हो तो कमर टूट जायगी – सूदखोर की शरण में जाना पड़ेगा। कई लोग यह कहते हैं कि सरकार ने इनकी ठेकेदारी तो नहीं ले रखी है, सरकार की शर्तों पर इन शिक्षकों ने नौकरी ज्वायन की तो अब फिर ये नखरा क्यों? सवाल समान काम के लिये समान वेतन पाने के अधिकार का है और एक सरकारी निकाय में काम करने वाले लोगों के मानवाधिकार का है। क्या सरकारी निकाय जिसमें शिक्षा शामिल है- नीजी फैक्ट्रियों के बंधुआ मजदूरों की तरह संचालित होगें? फिर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत सुविधाओं की गुणवत्ता क्या सरकार की जिम्मेदारी इस लोक कल्याणकारी राज्य में नहीं होनी चाहिये? आश्चर्य होता है कि शिक्षकों के पक्ष से उठे सवाल पर गंभीरता से सार्वजनिक बयान सरकार ने कभी नहीं दिया बल्कि इन शिक्षकों को ही फर्जी और निकम्मा घोषित करने में लगी रही है। बिहार में चल रहे तमाम सरकारी योजनाओं, केन्द्रीय योजनाओं में जितने भ्रष्टाचार के कारण लिकेज है और फिर जितने पैसे विभिन्न विभागों के बजट वर्ष में खर्च न कर पाने के कारण केन्द्र को लौट जाते हैं उनका निष्पक्ष हिसाब करें तो 4 लाख क्या 10 लाख नये शिक्षकों को बिहार सरकार पूर्ण वेतन दे सकती है। आंकड़ों में हम न उलझते हुये सीधी बात करें तो लालू प्रसाद- राबड़ी देवी के शासन से अब नीतीश कुमार- जीतनराम माँझी के शासन काल तक केन्द्र से बिहार को मिलने वाले वार्षिक राशि में करीब कई गुणा इजाफा हो चुका है। फिर केन्द्रीय योजनाओं जिसमें शिक्षा को लेकर भी कई योजनायें हैं जिनसे को मिलने वाली राशि का आंकलन करें तो बिहार सरकार को पैसे की कमी का रोना बंद कर देना चाहिये, यह सीधे तौर पर आम जनता को झाँसा देने और बरगलाने वाली बात है।

बिहार की आवाम का 89 फिसदी छात्र इन
सरकारी शिक्षण संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण करते हैं। इन स्कुलों में शिक्षकों के
बहाली की नीति का निर्धारण तो सरकार ने अपने शर्तों पर किया, गुणवत्ता के सवाल पर
सरकार ने कोर्ट में भी अपने नियुक्त शिक्षकों के गुणवत्ता पर उत्तम कोटि के होने
की बात स्वीकार की और दक्षता परीक्षा की खानापूर्ति का तरीका अपनाया ताकि अपने
नवनियुक्त शिक्षकों के दक्ष व गुणवत्ता पर खड़े होने का दावा आधिकारिक तौर पर कर
सकें। लेकिन हास्यास्पद यह है कि इन्ही शिक्षकों को अपने घर में बिहार के
मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री, अधिकारी अनेक जुमलों का प्रयोग कर हीनता- दीनता का
एहसास कराते रहते हैं। यह बिहार सरकार की दोमुँहा नीति ही कही जा सकती है। टी.वी.
मीडिया ने भी यदा- कदा किसी शिक्षक के मुँह में माइक ठूँसकर एक सवाल या स्पेलिंग
पूछा और बारंबार दिखाकर समूचे नवनियुक्त शिक्षकों को देश-दुनिया में नाकाबिल घोषित
करने का प्रयास किया है। मीडिया की ये खबरें सही होते हुये भी संदर्भ गलत है क्योंकि
समूचे शिक्षक वर्ग जिनकी संख्या बिहार में 5 से 5.5 लाख होगी इनको उपहास का पात्र
बनाना सही नहीं है। अगर ऐसे ही अंग्रेजी का स्पेलिंग टेस्ट या फिर जेनरल नॉलेज का
सवाल ज्ञान का मानक है तो बिहार के तमाम नेताओं, ब्यूरोक्रेट, मीडिया कर्मियों और
नियोजित शिक्षकों का एक सामुहिक सामान्य ज्ञान व अंग्रेजी ज्ञान परीक्षण
प्रतियोगिता आयोजित की जानी चाहिये। इसमें शक नहीं कि कई ऐसे महाज्ञानी नेता,
ब्यूरोक्रेट, पत्रकार होंगे जो नियोजित शिक्षकों से नीचे का अंक व स्थान प्राप्त
करेंगे क्योकि इन्ही नियोजित शिक्षकों के बीच से लोग इनदिनों देशभर की विभिन्न
प्रतियोगिताओं में चुने जा रहे हैं जिनमें केन्द्रीय (यू.पी.एस.सी.) व बिहार (बी.पी.एस.सी.)
की सिविल परीक्षा सहित एस.एस.सी., बैंक- रेलवे तथा अन्य राज्यों में प्रतियोगिता
पर आधारित नौकरियाँ शामिल हैं। किसी भी परिवार में ही सारे लोग शारीरिक- मानसिक
तौर पर एक मानक पर खड़ा थोड़े ही होते हैं लेकिन जो कमतर है उसकी उत्कृष्टता की
कोशिश की जानी चाहिये बजाय की उपहास का पात्र बनाया जाय। प्रखंड स्तर पर छोटे-
छोटे ग्रुप में इन नियोजित शिक्षकों के लिये कॉलेज शिक्षकों की तर्ज पर रिफ्रेशर-
ओरियेंन्टेशन कोर्स कराकर गुणवत्ता बहाल करने की कोशिश की जानी चाहिये।
एन.सी.इ.आर.टी. एवं एस.सी.इ.आर.टी. जैसे मानक संस्थानों को इस काम में भागीदार
बनाया जा सकता है। 








