Sunday, January 16, 2011

मेनिफेस्टो या झूठे वादों का पुलिंदा

मेनिफेस्टो किसी भी पार्टी की नीतियों और विचारों का जनता के बीच जारी एक घोषणा पत्र है l इस लिहाज से कहें तो मेनिफेस्टो किसी भी पार्टी का एक आईना है जो जनता के बीच किसी भी पार्टी और नेता की समाज और देश के प्रति भविष्य की दृष्टि को पेश करता है l आजाद भारत में लगभग साठ साल के चुनावी अनुभव के बाद भी प्रतीकों और नारों का बोलबाला है वहीँ मुद्दे गौण अथवा संघर्ष करते नज़र आते हैं l ये कहना तब लाजमी हो जाता है जब अधिकतर दलों के मेनिफेस्टो प्रोपोगंडा ज्यादा करते और मुद्दे कम बनाते नज़र आते है l बात देश की है पर सन्दर्भ बिहार के वर्तमान विधानसभा चुनाव से है l इस सिलसिले में सभी पार्टियों के बिहार विधानसभा चुनाव 2005 के समय जारी मेनिफेस्टो को खंगालने पर पता चलता है की सत्ताधारी दल जहाँ पूरे मेनिफेस्टो में किये गए अपने वादे ही भूल गयी वहीँ ऐसा लगता है की अन्य विपक्षी पार्टियां महज़ खानापूर्ति के लिए जारी करती हैं l

पिछले पांच सालों का आंकलन करें तो विपक्षी पार्टियां जनहित के मुद्दों पर आन्दोलन करती कहीं भी नजर नहीं आई l ऐसे मौकों पर जनता खुद संघर्ष करती दिखी और थोडा बहुत उन्हें स्थानीय नेताओं का साथ मिला l जमीनी स्तर पर वस्तुस्थिति का आंकलन करें तो पता चलता है की जनता में मेनिफेस्टो को लेकर कोई बहुत जागरूकता नहीं नज़र आती है l और ही नेता जनता के बीच मेनिफेस्टो के आधार पर वोट मांगने की कोशिश करते हैं l एक अनुमान के मुताबिक लगभग 75 फीसदी लोगों को आमतौर पर वोट देते वक़्त उक्त पार्टी के मेनिफेस्टो के बारे में बिलकुल भी पता नहीं होता है l वहीँ 15 फीसदी लोगों को मेनिफेस्टो के बारे में आंशिक रूप से सुना होता है या फिर जानते होते है जबकि 5 से बामुश्किल 10 % लोगो को ही मेनिफेस्टो का पता होता है जो वोट देने के वक़्त उन्हें प्रभावित करती हैं l मीडिया में किसी भी पार्टी के मेनिफेस्टो के प्रकाशन की खबर तो आती पर वो जनता के बीच खबर नहीं बन पाती l जनता में भी मेनिफेस्टो को एक रिवाज़ के तौर पर मानकर बहुत तवज्जो दिया जाय ऐसी बात नहीं है l पार्टियां भी इसे जारी करने की खानापूर्ति करती है जिसकी थोड़ी बहुत चर्चा मीडिया के माध्यम से जनता के बीच पहुंचती है l लेकिन आश्चर्य होता है जब मेनिफेस्टो जारी करने वाली इन्हीं पार्टियों के नेता चुनाव प्रचार के लिए जनता के बीच जाते है तो मेनिफेस्टो की चर्चा शायद नहीं करते है l जनता को लुभाने वाले प्रतीकों- बिम्बों और प्रोपोगंडा का सहारा लिया जाता है वोट के लिए l

समाजशास्त्री इसके लिए दोतरफा कारण मानते हैं l पहला तो लोकतंत्र के प्रति जनता में रूचि का अभाव है और ये सिर्फ वोट देने के रिवाज़ तक सीमित हो गया है l जब हम सिर्फ साक्षरता मिशन ही अभी पूरा करने में लगे हैं, ज्ञान पर आधारित समाज की परिकल्पना अभी दूर की कौरी नज़र आती है l हक- हकूक और अधिकार बोध हर जनता के सोच में शुमार हो इसके लिए शिक्षा का मजबूत बुनियाद आवश्यक है और ये बातें ही लोकतंत्र की जड़ो को गहरे तक जमा सकता है l दूसरा कारण है पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र का होना इस कारण अधिकाँश बड़ी पार्टियों में जमीनी स्तर के मजबूत नेता संगठन में कम दिखाई देते है l या तो इनकी पंहुंच शीर्ष नेताओं तक नहीं हो पाती या फिर ये शीर्ष नेता इन वजूद वाले नेताओं के साथ सहज नहीं महसूस करते हैं l राष्ट्रीय दलों जैसे बी.जे.पी., कांग्रेस और वामदलों के साथ पार्टी का कैडर बेस तो दिखता है पर अधिकाँश नई और क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थक कैडर कम और भीड़तंत्र का सहज एहसास देते है l जो लोग इस तरह के दलों के प्रति समर्पित भी दिखाई देते हैं वो विचारधारा के प्रति नहीं बल्कि नेताओ के प्रति ज्यादा निष्ठांवान नज़र आते हैं l

दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कालेज में इतिहास के प्राध्यापक पी.के.चौधरी कहते है की मेनिफेस्टो एक ऐसी हिपोक्रेसी है जिसे राजनीतिक दलों को परंपरा और बौद्धिक मुखौटा के तौर पर ही सही बनाये रखना चाहिए l आमतौर पर ये पार्टियों की एक विशलिस्ट है जिसके आधार पर जनता वोट नहीं देती है और ही जनता ये सवाल उठाती है की आपने मेनिफेस्टो में कुछ लिखा तो क्यों नहीं पूरा किया l लेकिन सैद्धांतिक रूप से इन मेनिफेस्टो का उपयोग प्रेशर ग्रुप और विपक्ष चुनाव में बेहतर कर सकती हैं l पी.के.चौधरी ये भी कहते है साक्षरता दर और मध्य वर्ग का आकार जैसे जैसे बड़ा होगा भविष्य में पार्टियों को मेनिफेस्टो के आधार पर आंकलन करने का चलन बढेगा l पर इसके लिए बुद्धिजीवियों, सामाजिक और गैर राजनीतिक संगठनो की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में बड़ी और बेहतर भूमिका निभाना होगा l

मेनिफेस्टो के आधार पर हमने एक कोशिश की बिहार के विकास को आंकने की इन दिनों बिहार में पंचायती राज व्यवस्था की सफलता की दुहाई बहुत दी जाती है पर पंचायतें प्रशासनिक भ्रष्ट्राचार की एक कड़ी के रूप में नज़र आती हैं l ग्रामसभा का आयोजन शायद ही कहीं सार्वजनिक रूप से होता है पर कागजो में जरूर अंकित होती है l मनरेगा, प्रधानमंत्री सड़क योजना, इंदिरा आवास योजना, डीजल- बीज सब्सिडी कूपन, बैंकिंग लोन व्यवस्था, जन वितरण प्रणाली व्यवस्था इन सारी योजनाओ में भ्रष्ट्राचार का घुन इस कदर घुस चुका है की जमीनी स्तर पर जनता का विक्षोभ उनके चेहरे पर जरूर नज़र आता है l उद्योग, पूंजी निवेश, कृषि, उच्च शिक्षा, सामान शिक्षा प्रणाली और भूमि सुधार का दावा यूँ ही बक्से में बंद हो गया l पर शायद ही कोई पार्टी विकास के दावे और आरोप- प्रत्यारोप के बीच जनहित के मुद्दे पर संवाद बनाने की कोशिश कर रही हो l

बिहार के एक अर्थशास्त्री प्रो.नवल किशोर चौधरी कहते है की आज के सन्दर्भ में मेनिफेस्टो एक झूठे वादे का पुलिंदा है जिसे पार्टिया सत्ता में आने के बाद भूल जाती है l बिहार के सत्ताधारी दल के मेनिफेस्टो के आधार पर विकास के दावे को तौलते हुए कहते है की सरकारी आंकड़ो के अनुसार 2009 - 2010 बिहार का विकास दर 4.72 है वहीँ कृषि और पशुपालन का विकास दर ऋणात्मक -17.62 है जिस पर बिहार की 80 % जनता निर्भर है l तेंदुलकर रिपोर्ट के अनुसार बिहार में गरीबी 55 % है और सर्वे में पलायन की जो चौथी रिपोर्ट आई है उसके अनुसार पलायन नहीं रुका है l विकास शहरी क्षेत्रों में कुछ लोगों तक सीमित दिखाई देता है l प्रो. चौधरी बिहार में चमत्कारी विकास के नीतीश कुमार के दावे की तुलना इंडिया शाइनिंग के गुब्बारे से करते है l

इन सब आंकड़ो के बावजूद विपक्षी पार्टिया इसे मुद्दा बनाने की बजाय जाति और जमात को ही भुनाती दिखती हैं l यहाँ छह पार्टियों के 2005 विधानसभा चुनाव के मेनिफेस्टो दिए गए है जो ये दर्शाते है की सत्ताधारी दलों के वादे बामुश्किल 20 से 25 % ही या तो पूरे किये गए अथवा पूरा करने की कोशिश की गयी l वहीँ अन्य विपक्षी पार्टियां मेनिफेस्टो में किये गए अपने वादे को लेकर जनता के बीच गयी नहीं और ही जनांदोलन करती दिखी l मेनिफेस्टो का चुनाव में वोट का आधार बन पाने का एक बड़ा कारण सामाजिक संगठनो, विद्वानों और बुद्दिजीवियों की चुनावी सक्रियता में कमी भी है l हाल के दिनों में कई गैर सरकारी संगठन नेताओं की संपत्ति, आपराधिक रिकार्ड का खुलासा जनता और मीड़िया में करने लगी है वैसे ही मेनिफेस्टो को जनता के बीच ले जाना लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है ताकि इस बात का खुलासा हो की पार्टियों नेताओं के किये वादे कितने पूरे, कितने अधूरे और कितने झूठे हैं l हालाँकि इस लेख के दौरान सभी पार्टी के नेताओं से बातचीत की कोशिश में ये दावे सामने आये की उनकी मेनिफेस्टो के प्रति निष्ठा है और दुसरो के मेनिफेस्टो को झूठ का पुलिंदा भी बताने से नहीं चुके l

आई.सी.एस.एस.आर. के सदस्य रह चुके और वर्तमानं में पटना स्थित एक प्रसिद्द संस्थान 'एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीच्युट' (आद्री) के निदेशक प्रभात घोष बताते है की अच्छे मेनिफेस्टो का लाभ थोडा- बहुत पार्टियों को जरूर मिलता है लेकिन बाद में सरकार के कामों का मेनिफेस्टो के आधार पर आंकलन जनता और विपक्ष नहीं कर पाती l इसका मतलब ये नहीं की मेनिफेस्टो का कोई मतलब नहीं क्योंकि अच्छे मेनिफेस्टो का लाभ पार्टियों को मिले मिले पर बुरे मेनिफेस्टो के लिए वे निश्चित रूप से निशाने पर होंगी l ये उसी तरह की बात है की जैसे की एक कहावत है की फुटबाल में अच्छा रेफरी वही होता है जिसकी चर्चा एक अच्छे मैच की समाप्ति के बाद नहीं होती है पर जब मैच का अंत बुरा या फिर विवाद के साथ होता है तो रेफरी की ख़ास चर्चा होती है l वे बताते हैं की ये सही बात है की मेनिफेस्टो का आम जनता के लिए कोई ख़ास मतलब नहीं बनता है लेकिन पार्टियों को जब मीडिया, बुद्धिजीविओं और विपक्ष से निपटना होता है तो ये मेनिफेस्टो ही उनके लिए सन्दर्भ का आधार बनती है l

आजादी के बाद से ही देश में दिनों-दिन राजनीति का जो तकाजा दिखता है उसमें गिरावट ही नजर आती है l बात सिर्फ मूल्यों और नैतिकता की नहीं है संवाद बनाने की कोशिश बड़े तौर पर नहीं दिखती है l पार्टियां भी मीडिया का सहारा इतना ज्यादा लेने लगी हैं जनता से अपने सरोकारों को जोड़ने में की सीधे संवाद की गुंजाइश कम नज़र आती है l मीडिया के अपने उसूल और कारण हैं जो टी.आर.पी. या यूँ कहें की बाजार निर्देशित ज्यादा है l ये बात इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ज्यादा लागू होती है प्रिंट की बजाय l कई महत्वपूर्ण जनहित के सरोकारों का मीडिया में खबर बन पाना लोकतंत्र की जड़ो को नीचे ले जाने में बाधक है l एक महत्वपूर्ण सवाल मेनिफेस्टो रिलीज़ करने वाली उन पार्टियों से भी है की क्या कारण है की विधानसभाओं संसद में संवाद और बहस का समय और स्तर गिरता जा रहा है l

लोकतंत्र लोगो के उम्मीद पर कायम है पर बेहतर हो की ये जनता के जीवन और विचारों को प्रभावित करे l जनता जिस दिन पार्टियों को उनके मेनिफेस्टो में किये गए वादे और सत्ता में आने के बाद किये गए कायों के आधार पर जनमत बनाना शुरू कर देंगी नेताओ को झूठे वादे और ढकोंसलों का की कीमत पर का अंदाजा लगेगा l फिलहाल ये बातें दूर का ढोल सुहावना लगने जैसी हो पर वो दिन दूर नहीं जब नेताओ और पार्टियों का ये बौद्धिक आवरण जनता के बीच मतदान के दिन तराजू का काम करेगा
(नोट- चित्र http://www.johnehrenfeld.com से साभार।)

1 comment:

  1. of course jhoothe vaadon ka hi pulinda hai... kyuki neta bas vaade hi karte hai unhe poora nahi karte..
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