Thursday, December 22, 2011

छोटे राज्यों के गठन को लेकर उभरे सवाल

!!!क्या नीतीश कुमार मगध सम्राट बनेंगे !!!

दो भाईयों के बीच संपत्ति विवाद हुआ। आपस में जमीन- जायदाद का बँटवारा कर लिया। एक ने माँ को रख लिया और दूसरे ने पिता को रख लिया। जब सब कुछ बँट गया तो एक दूधारू गाय बची। एक भाई बेचने के पक्ष में तो दूसरा रखने के पक्ष में था। फिर दोनों के बीच इतनी तनातनी थी कि अगर एक उस गाय को रख भी ले तो दूसरा मुआवजा लेकर शांत हो जाने को तैयार नहीं था। जब सभी हार गये तो दोनों बेवकूफ जिद्दी भाईयों ने उस गाय का बँटवारा अपना दिमाग लगाकर कर लिया। एक भाई गाय के पेट के उपरी भाग का मालिक बन बैठा सोचा कि गाय तो मुँह से ही खाती है और उसके गले की रस्सी हाथ में रहेगी। दूसरा भाई पेट के नीचे के भाग का मालिक बन गया सोचा की दूध निकालेंगे तो खायेंगे और कमाई भी होगी। लेकिन दोनों भाई की मति ऐसी मारी गयी थी कि सहमति और सामुहिक लाभ की भावना जैसी कोई बात उनके बीच नहीं थी। जब एक भाई गाय को खाना खिलाने की कोशिश करता तो दूसरा उसकी पूँछ पकड़ कर हड़का देता और जब दूसरा दुध निकालने की कोशिश करता तो पहला गाय के गले की रस्सी खीचने लगता। कुछ मिलाकर स्थिति ये बनी की गाय ने दूध देना बंद कर दिया और एक दिन उसकी जान चली गयी। फिर लम्बे समय तक दोनों भाई खुद को बड़ा दिखाने और एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में परेशानियों से घिरते चले गये।


ये तो एक महज कहानी भर है पर इसकी चर्चा का संदर्भ इनदिनों देश में छोटे राज्यों को लेकर चल रहे बहस से भी जुड़ा है। भारत की विडंबना ये है कि एक ही देश में जितनी विभिन्नता के तत्व मौजूद है उतना शायद ही किसी और देश में होगी। भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भाषाई, जाति- धर्म, संप्रदाय इन सबके आधार पर लोगों का समूह, आस्था व मान्यता तय है जो बड़े वैचारिक बहस का हिस्सा है। स्पष्ट तौर पर कहे तो रियासतों में बँटे इस देश का एकीकरण भले ही हो गया लेकिन उपराष्ट्रीय भावनायें भारत में अब भी मौजूद है। कई बार ये भावनायें जब उफान मारती है तो नये राज्य की माँग जोर पकड़ने लगती है। इसका एक बड़ा संदर्भ राज्यों के भीतर कई इलाकों में मौजूद क्षेत्रीय विषमता और असंतोष से भी है। 11 साल पहले देश में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन हुआ । इस विभाजन की खास बात ये रही की इन इलाकों की क्षेत्रीय विषमता को लेकर लम्बे समय से चले आ रहे बहस और जन आंदोलन के बाद इन राज्यों का बनाने का निर्णय लिया गया। इसी तरह तेलंगाना राज्य का सपना भी अगर पूरा होता है तो ये जनआंदोलन के दबाव के कारण ही संभव दिखायी देता है।


हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने बहुमत के बूते राज्य के बँटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में सिर्फ 11 मिनट के भीतर पास कर दिया। ये जनता की आकांक्षा को फलीभूत करने की कम और भावी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक पासा फेंकने की कवायद ज्यादा है। उत्तर प्रदेश को चार भागों में बाँटने की मायावती के इस बुलंद हौसले वाले निर्णय की तुलना लालू यादव के सत्ता में काबिज रहने के लिये बिहार बँटवारे के फैसले से की जा सकती है। झारखंड के वजूद की माँग का ऐतिहासिक संदर्भ में महत्व व जरूरत के बावजूद लालू यादव ने कभी भी इसे तवज्जो नहीं दी, खासकर जबतक वे मजबूत बने रहे। लेकिन जैसे ही उनका सामाजिक समीकरण कमजोर पड़ता दिखाई पड़ा, अपनी लाश पर झारखंड बनने की दुहाई देने वाले लालूजी ने पलभर में सहमति दे डाली। भले ही राज्यों का वजूद में आना किसी दल के लिये राजनीतिक पासा हो सकता है लेकिन राज्य के गठन- पुनर्गठन का सवाल क्षेत्रीय- भाषाई- सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा है।


छोटे राज्यों के समर्थन में एक बड़ी दलील क्षेत्रीय आर्थिक विषमता को लेकर है तो दूसरा प्रशासनिक नियंत्रण और शासन के सफल संचालन को लेकर भी है। इन दलीलों पर 11 वर्ष पहले नक्शे पर उभरे राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल का आंकलन करें तो थोड़ी खुशी और बहुत सारे गम जैसे भावना मन में उभरती है। उत्तरांचल ने पर्यटन, बिजली तथा अन्य क्षेत्रों में प्रगति की है जो यहां की पुरानी ऐतिहासिक व भौगोलिक पृष्ठभूमि से भी जुड़ा है। वहीं छत्तीसगढ़ और झारखंड नक्सल गतिविधियों के कारण हाल के वर्षों में ज्यादा चर्चित हुआ। छत्तीसगढ़ में कुछ प्रगति की बेहतरीन कोशिशें हुई है लेकिन झारखंड की वर्त्तमान त्रासदी अफसोस पैदा करती है। इसके कुल 24 जिलों में से कहीं कम-कहीं ज्यादा 22 जिले नक्सल प्रभावित है। इसकी आर्थिक राजधानी जमशेदपुर की विडंबना देखिये तो स्टील सिटी के 5 किलोमीटर के रेडियस में किसी भी ओर जायें तो आमलोगों के चेहरे पर गरीबी का आलम देखा और महसूस किया जा सकता है। छोटानागपुर और संथाल परगना के इलाके में टीनेन्सी एक्ट की धज्जियाँ उड़ाने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं। बड़ी कंपनियों के लिये जमीन का अधिग्रहण हो रहा है जिसमें जनता की आर्थिक भागीदारी और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों को ताक पर रख दिया गया। राजनीतिक उथल-पुथल और प्रशासनिक विफलता ने इस छोटे से राज्य के भीतर क्षेत्रीय असंतोष पैदा कर दिया है और यहाँ से भी नये राज्य की माँग की सुगबुगाहट होने लगी है।


बिहार की बात करें तो यहाँ मिथिलांचल, मगध, अंगप्रदेश व भोजपुर राज्य की माँग यदा- कदा होती रही है। उत्तर प्रदेश को चार भागों- पूर्वांचल, अवध प्रदेश, बुन्देलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश या हरित प्रदेश में विभाजित किये जाने पर राजनीतिक बवाल शुरू है। इधर नीतीश कुमार भी छोटे राज्यों की वकालत कर चुके हैं लेकिन उनकी ये माँग भी गौर करने लायक है कि इन छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुये किसी भी राज्य की विधानसभा में कम से कम 100 सीटों सुनिश्चित किया जाये। उड़ीसा, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भी असंतोष की सुगबुगाहट होने लगी है जो खबरों की सुर्खियों से बाहर है। पश्चिम बंगाल में चौबीस परगना, उड़ीसा के तेलुगु भाषी इलाके, महाराष्ट्र में विदर्भ ये सारे इलाके राजनीतिक असंतोष जाहिर कर रहे हैं। वैसे राज्य विभाजन को लेकर सबसे सुलगता सवाल तेलंगाना की माँग तो केन्द्र के लिये एक चुनौती से कम नहीं है। इसी बीच छोटे राज्यों में भ्रष्टाचार का उदाहरण देखना हो तो उत्तर-पूर्व राज्यों को देखा जा सकता है। एक और दो सासंदो वाले राज्य होने के बावजूद वहाँ नगा, कुकी और अन्य जातीय गुटों के बीच मतभेद और संघर्ष की खबरे हकीकत बताने के लिये काफी है। यहाँ तक की जम्मू और कश्मीर को तीन भागों लद्दाख, जम्मू और कश्मीर घाटी में विभाजन के लिये राजनीतिक सवाल वहाँ के नेता उठा चुके हैं।


अब राज्य बने नहीं की हकीकत में न सही राजनीतिक लतीफेबाजी में मुख्यमंत्री भी बनाये जाने लगे हैं। हुआ यूँ कि एक सज्जन ट्रेन में बैठे बात कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद चार नये बने राज्यों अवध प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड व पश्चिम उत्तर प्रदेश की सत्ता क्रमश: मुलायम सिंह, अमर सिंह, मायावती व अजीत सिंह को मिल जायगी । तो वहीं बैठे एक बिहारी बन्धु ने कहा कि अच्छा है बिहार को भी चार भाग में बाँट दिया जाय तो लालू यादव, रामविलास पासवान, जगन्नाथ मिश्र भी मुख्यमंत्री बन जायेंगे और नीतीश कुमार मगध के सम्राट हो जायेंगे। वहीं बैठे एक कांग्रेसी सज्जन ने तुनकते हुये विरोध किया कि वाह भाई वाह। उत्तर प्रदेश- बिहार को बाँटकर 8 मुख्यमंत्री बने और हमारे हाथ कुछ भी नहीं। सब आपही लोग ले लेंगे तो कांग्रेस क्या बजायेगी झुनझुना।


लतीफेबाजी और राजनीति की लिफाफेबाजी के बीच छोटे राज्यों का मुद्दा एक गंभीर सवाल है जो किसी एक क्षेत्र का नहीं बल्कि राष्ट्रहित से जुड़ा मसला है जिसपर विचार और बहस अविलंब जरूरी है।। सवाल आम जनता के लिये क्षेत्र, भाषा, संस्कृति की अस्मिता का है या फिर आर्थिक विषमता से उपजे असंतोष का है। इन्ही के बीच नेताओं के अपने स्वार्थ में राजनीतिक गोटी फिट करने का भी है। लेकिन एक बड़ा सवाल भारत के अपने एक संगठित राष्ट्र के रूप वजूद का भी है क्योंकि देश सिर्फ सरहद से नहीं इसमें रहने वाली आवाम के जज़्बे, जोश और भावनाओं से बनता है। राज्य विभाजन के लिये वैसे कमीशन पहले भी बने लेकिन देशभर से अलग राज्य की उठती माँग को देखते हुये और जनभावनाओं का ख्याल रखते हुये नये राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना एक बड़ी तात्कालिक जरूरत बन चुकी है।

('मैग्निफिसेन्ट न्यूज' के दिसंबर अंक में प्रकाशित।)

नीतीश सरकार के छह साल और सुशासन के नये जुमले की तलाश

बिहार विकास के मार्ग पर अग्रसर है - आज की तारीख में ये बात बिहार के संदर्भ में सच जरूर मालूम पड़ती है, अगर लालू यादव के दौर की तुलना में कोई बयान जारी करना हो। जाहिर है कि सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार को लेकर हर साल पेश किया जाने वाले आकड़ों की बदौलत राज्य सरकार के हौसले बुलंद नजर आते हैं। सुशासन का जुमला तो पिछले छह सालों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जुबान से फिसल कर मिडिया के सहारे अब लोगों की जुबान पर चढ़ चुका है।


कानून- व्यवस्था के फ्रंट पर नीतीश सरकार ने जनता का वाकई दिल जीता है और लोगों में व्याप्त भय का वातावरण कम है। लेकिन सरकारी आकड़ों में बढ़ता अपराध भविष्य के लिये कई चिंता पैदा करता है। दलित उत्पीड़न और पुलिसिया जुल्म की कई घटनायें खबरों की सुर्खिया बन चुकी हैं तो हत्या, अपहरण, फिरौती और बलात्कार की कई घटनाओं ने जनमानस को झकझोरा है। नये संवेदनशील डी.जी.पी. अभयानंद की छवि और मेहनत को लेकर बेहतर उम्मीद सभी को है।


सड़क को लेकर राज्य सरकार ने काम बेहतर किया है तो बिजली के क्षेत्र में वर्त्तमान की चिंता बनी हुई है। वैसे भविष्य के लिये बहुत थोड़ी सी उम्मीद बँधती दिखाई देती है। बियाडा जमीन विवाद ने राज्य सरकार की औद्योगिकरण नीति पर सवाल खड़ा किया है और निवेश का जमीनी धरातल पर उतरना बहुत संभव नहीं हो पाया है। पलायन को लेकर सरकार के दावे में या फिर आकड़ों में बहुत दम नहीं दिखाई देता है। दशहरा, दिवाली और छठ के अवसर पर देशभर में बिहारियों के पलायन और विस्थापन की त्रासदी का सहज अनुभव किया जा सकता है।


शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नये संस्थानों का खुलना बेहतर संकेत है लेकिन पुराने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय कॉलेज, शोध संस्थान ध्वस्त पड़े हैं। राज्य के सभी विश्वविद्यालय- कॉलेज में 50 फिसदी शिक्षकों की कमी है तो सरकार इस टोटे को रेशनलाईजेशन प्रक्रिया की खानापुर्ति से निपटना चाह रही है। शिक्षकों के वेतन, पेंशन, प्रोमोशन के मामले के बीच छठे वेतनमान को लेकर तमाम विसंगतियों से शिक्षक जुझते नजर आते हैं। वहीं यू.जी.सी. के निर्देशानुसार उम्रसीमा 65 किये जाने के लेकर सरकार गेंद कोर्ट के मामले या फिर राजभवन पर की ओर उछाल देती है। एकेडमिक सेशन के नाम पर सिर्फ परीक्षाएं सही समय पर लेने की खानापूर्ति की जाती है जबकि पढ़ाई के मामले में राज्यभर के विश्वविद्यालयों में कमोबेश एक ही तरह की तस्वीर नजर आती है। लिहाजा अच्छी शिक्षा के लिये राज्य के बाहर जाने वाले का सिलसिला थमता नजर नहीं आता है।


प्राथमिक, और माध्यमिक शिक्षा गुणवत्ता की मार झेल रहा है। बिहार सरकार ने हाल ही में राहत की साँस ली जब सुप्रीम कोर्ट ने 34, 540 शिक्षकों की नियुक्ति के लिये वरीयता सूची को हरी झंडी दे दी। अब शिक्षक पात्रता परीक्षा की प्रक्रिया के तहत बेहतर शिक्षकों की उम्मीद कुछ बँधती है। पूर्व में सर्टिफिकेट जमा कर नियुक्त शिक्षकों की परीक्षा लेकर सरकार ने पात्रता सुनिश्चित कर दी है। अब उनकी ट्रेनिंग की व्यवस्था कर दी जायगी। लेकिन इन शिक्षकों में अधिकांश के ज्ञान और विद्वता की मार बिहार के सरकारी स्कुलों के बच्चे आने वाले दशकों तक भुगतेंगे। वैसे इस मामले में भी संभावनाओं की सरकारी तस्वीर सिर्फ कागजी सुकून भर देती है।


स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार के प्राथमिक केन्द्रो में जान फूँकने की बेहतरीन कवायद हुई है। अस्पतालों में कुछ दवायें जो मुफ्त में मिलनी शुरू हुई थी उसपर ग्रहण भी लगता दिख रहा है, इसकी बानगी पी.एम.सी.एच. में भी देखी जा सकती है। पटना के एम्स का इंतजार सबको है तो आई.जी.आई.एम.एस. को उत्कृष्ट बनाने की कवायद में भी वक्त लग रहा है। इमरजेन्सी में आज भी मरीजों को बिहार के दुसरे कोने से पटना भेजने की परंपरा जारी है। स्पष्ट है की प्राथमिक केन्द्रों को छोड़ दें तो पटना के बाहर उत्कृष्ट स्तर की सुपर स्पेशलिटी स्वास्थ सुविधाओं की कमी से लोगों की मौत का सिलसिला जारी है।


केन्द्र सरकार और विपक्ष के निशाने पर ग्रामीण विकास विभाग की योजनाये मनरेगा, इंदिरा आवास रही हैं। युवा मंत्री नीतीश मिश्र की तरफ के कई बेहतर प्रयास किये गये है ताकि अनियमितताओं को रोका जा सके। सफलता भी मिली है लेकिन नीचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के घुन ने आम जनता को तबाह कर रखा है। इसी तरह का कुछ प्रयास खाद्यान्न व उपभोक्ता विभाग में किया गया है। गैस की बुंकिग और कालाबाजारी पर कुछ हद तक अंकुश लगा है, जनवितरण व्यवस्था में जी.पी.एस. जैसे तकनीकों के इस्तेमाल कर बेहतर बनाने की कोशिश जारी है। कृषि योजनाओं और तकनीकों को लेकर जनता के बीच सरकार ने जागरूकता बढ़ाने का काम बखूबी किया है। लेकिन बाढ़ और सुखाड़ झेलने को त्रस्त जनता उत्पादन और लागत के बीच के अंतर को मुनाफे में तब्दील नहीं कर पा रही है।


राजधानी पटना में मिडिया की तमाम सुर्खिया बटोर रही सरकार से महज से लगभग 10- 15 किलोमीटर दूर मनेर प्रखंड में आम जनता सरकार की उपलब्धियों के लिये पूरे नंबर देने को तैयार नहीं दिखी। लोग कई मामलों में नीतीश कुमार की व्यक्तिगत प्रशंसा भले करते हों लेकिन उनके सरकार के प्रशासनिक पदाधिकारियों के प्रति अच्छी राय नहीं है। आम जनता मानती है राजधानी पटना और कुछ जिला केन्द्रों को छोड़ दें तो अनुमंडल, प्रखंड, अंचल कार्यालय भ्रष्टाचार के मामले में चारागाह बन चुके हैं। बिजली संकट के दौर में डीजल कुपन किसानों तक पहुँचती इससे पहले प्रखंड कार्यालय से ही गायब हो गयी। खाद, बीज वितरण में सरकारी प्रयोग के बावजूद किसान संतुष्ट नहीं दिखते हैं। हाल ही में आये बाढ़ में सरकारी कागजों में अनेक नाव चलते रहे और राहत भी बँटे पर हकीकत में पिड़ितों तक नहीं पहुँचे। आम जनता की प्रखंड कार्यालयों और थानों के बारे में राय सिर्फ अफसोसजनक है। ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य के मुखिया के तमाम वादे और नेक इरादे जिसकी गूँज जनता के कानों तक पहुँच रही है, अधिकारियों के कानों में उसकी जूं भी नहीं रेंगती।


मनेर से आगे बढ़े तो बिहटा प्रखंड का इलाका है जो पटना राजधानी से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ राज्य सरकार ने तकरीबन 2200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया है। इन्ही जमीनों पर आई.आई.टी. के अलावा कई दूसरे शिक्षण संस्थान और उद्योग खुलने हैं। स्थानीय किसानों से बातचीत करने पर पता चलता है कि अधिग्रहण में कई तरह की अनियमिततायें सामने आ रही हैं। जमीन के मुआवजे की राशि में अंतर है तो कई लोगों की जमीन का बड़ा भूखंड अधिग्रहित कर कुछ डिसमिल जमीन बाहर कर दिया गया है। इन जमीनों पर आश्रितों की सूची स्पष्ट तौर पर सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया है और न ही अधिग्रहण कानून के मुताबिक इन लोगों का राहत राशि और सहायता दी गई है। तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद के उद्घाटित राजेन्द्र गौशाला की करीब 70 एकड़ जमीन एच.पी.सी.एल. को दी गई है, लेकिन इस जमीन पर करीब 50 सालों से खेती कर जीवन- यापन कर रहे 40 से अधिक परिवारों को विस्थापित कर दिया गया है। यही हाल बिहटा चीनी मिल का है जिसे फिर से स्थापित करने की कोशिश के बजाय दूसरे कारखानों के लिये परिसर मुहैया कराया जा रहा है। जबकि इस चीनी मिल के विस्थापितों को नये खुले कारखाने में समायोजन की नीति स्पष्ट नहीं की गई है। इन्ही इलाकों में करीब 7-8 कारखाने खुले है जिनमें स्थानीय भूमि विस्थापितों की स्थायी नौकरी की गारंटी नहीं है। वर्त्तमान में ये सारे आकड़ों के लिहाज से सुखद एहसास दे रहे हों लेकिन भविष्य में इन इलाकों में उत्पन्न होने वाली आर्थिक विषमता सामाजिक असंतोष का कारक बनने जा रही है। इन उदाहरणों से लगता है कि राज्य की अर्थव्यवस्था को कायापलट करने और औद्योगिकरण की नीति में स्थानीय लोगों की अर्थव्यवस्था में भागीदारी की गारंटी नहीं है।


हाल ही में आये नये आँकड़े के अनुसार राज्य में विकास दर की रफ्तार 14 फीसदी है वहीं दूसरी हकीकत ये भी है कि कृषि का विकास दर ऋणात्मक में है जिसपर राज्य की 70 फीसदी से ज्यादा आबादी आश्रित है। इस बार सी.ए.जी. रिपोर्ट में उजागर की गयी खामियाँ अब सरकार और जनता के जेहन से विस्मृत हो चुकी हैं लेकिन हर विभाग में सरकारी योजनाओं में अनियमितता का खुलासा प्रशासनिक कार्यशैली की विफलता की ओर इंगित करता है।


सरकार के दावे, उनकी हकीकत, आरोप- प्रत्यारोप की राजनीति के बीच विपक्ष की उपस्थिति बिहार विधान सभा में कमतर तो है ही, सड़कों पर भी इनकी मौजूदगी अवसर और परिस्थितियों की मोहताज हो चुकी है। राम विलास पासवान औऱ लालू प्रसाद यादव पटना में जनता के बीच सक्रीय होने के बजाय दिल्ली दरबार को खुश करने में ज्यादा मशगूल है। जाहिर है की एल.जे.पी. और आर.जे.डी. ने नेताओं और समर्थकों की मायूसी समझी जा सकती है। कुंद धार विपक्ष के कारण एक ध्रुवीय सी लग रही राज्य में राजनीति का पलड़ा नीतीश कुमार की ओर ही झुका हुआ है। ये एक बड़ा कारण है कि वर्त्तमान में बिहार की राजनीति का तथ्यपरक विश्लेषण यानि वैल्यू जज़मेंट संभव नहीं दिखता है।


बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के कालाधन विदेश से वापस लाने और जनलोकपाल कानून लागू करने के अभियान के दौर में बिहार सरकार ने भी भ्रष्टाचार विरोधी अभियान छेड़ रखा है। सेवा का कानून लागू होने के बाद जनसुविधाओं में बेहतरी की गुंजाईश की जा रही है। सरकार की जीरो टोलेरेन्स नीति के बावजूद नीचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार की चर्चा जो आम जनता के बीच है शायद नीतीश कुमार जी के कानों तक भी पहुँच रही होगी। इन तमाम चर्चाओं के बीच बिहार सरकार अपनी दूसरी पारी का एक साल पूरा करने जा रही है। 24 नवम्बर को नीतीश सरकार की दूसरी पारी का एक साल पूरा होने के काफी पहले से ही सभी मंत्रालयों और सरकारी महकमों में उपलब्धियाँ जुटाने और गिनाने की होड़ लगी हुई है जो जनता के सामने पेश किया जायगा। कोई शक नहीं की एक साल की उपलब्धियाँ जब जनता के सामने रंगीन कलेवर में पेश होंगे तो सरकार के हौसले कुछ ज्यादा बुलंद हो चुके होंगे और संभव है विपक्ष कुछ और हाशिये पर जाता दिखेगा।


किसी ने भी अगर गौर किया हो तो नीतीश सरकार के पहले कार्यकाल में शासन की विफलता का ठीकरा लालू यादव और उनकी सरकार पर फूटता रहा तो इस दूसरे कार्यकाल के शुरू होते ही निशाना केन्द्र सरकार बनी। अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर राज्यभर के दौरे पर निकले हैं। तय है कि जब ये दौरा पूरा होगा तो सुशासन का नया जुमला गढ़ा जा चुका होगा। राजनीति की मजबूरी है कि एक जुमले से ज्यादा दिन तक काम नहीं चलाया जा सकता, जाहिर है कि नये नारे और प्रतीकों की तलाश बिहार सरकार को होने लगी है।

('मैग्निफिसेन्ट न्यूज' के नवंबर अंक में प्रकाशित )

Sunday, October 30, 2011

प्यार का इज़हार भी जरूरी


इस तेज भागते वक्त में जिन्दगी का ख्याल किसे है। फुरसत ही नहीं मिलती की दो पल ठहर लें, कुछ उनकी सुन लें या फिर दो शब्द कह सकें। हम साथ- साथ होकर भी एक दूसरे को समझ नहीं पाते हैं। इस रिलेशनशिप का तकाजा ये है कि जिन्दगी बीत जाती है तीन शब्द कहने में। अब मैने तीन शब्द का नाम क्या लिया- गुदगुदी होने लगी न मन में जनाब! ये ग्लोबलाईजेशन के दौर का दिमाग ही कुछ ऐसा है। एक दिन मैने कुछ युवाओं से पूछा तीन शब्द मायने क्या? मजेदार की पाँचों युवा साथियों ने कहा- आई लव यू! वाह क्या कांफिडेन्स है हमारे यंग फ्रेंड्स के। लगता तो यही है कि जिस तरह एक दौर में लाईफब्वॉय नहाने का साबुन, सनलाईट धोने का साबुन, कोलगेट मायने टुथपेस्ट, स्कुटर मायने बजाज जैसे कई सिनोनिम क्रियेट हुये जो आम मध्यवर्ग के ब्रांड बन गये थे। इस दौर में किसी दिन तीन शब्द का मतलब आई लव यू - अगर म़ॉडर्न डिक्शनरी में शामिल न भी हो तो युवाओं की जुबान पर चढ़ तो गये ही हैं।

इस तीन शब्द की बात करना जितना आसान है उतना ही कठिन है इसे अपने पसंद के साथी से कह देना। ये कॉन्टेक्स्ट जाहिर सी बात है की पोपुलर टर्म में ब्वायज ऐन्ड गर्ल्स के बीच का ही है। लेकिन अब ऐसा पूरी तौर पर नहीं है की लव मिन्स देअर विल ऑलवेज बी ए ब्वाय एन्ड ए गर्ल। सो इन दिस एरा ऑफ ग्लोबलाईजेशन व्हेन वी टॉक एबाउट लव इट्स नॉट नेसेसरी दैट इट इज गोइंग टू बी ए प्लस एन्ड ए माइनस कनेक्शन। ट्वेन्टी फर्स्ट सेन्चुरी में लव के होराईजन का अब काफी एक्सपेन्शन हो गया है और इसके कई आयाम डेवलप हो गये हैं। लाईक फोर एक्जाम्पल- यूनिपोलर, सेमिपोलर, मल्टीपोलर, मल्टीडॉयमेन्सनल, प्लस- प्लस, माईनस- माईनस ।

भाई सच- सच कहूँ तो ये लव प्योर मैथेमेटिक्स है जो बेस्ड है टाईम, सिचुएशन और डिस्टेन्स पर। ये पूरा का पूरा एक अलज़बरा के अनसाल्वड इक्वेशन की तरह है। मोड और मेथोडोलॉजी क्या अप्लाई करते हैं बहुत मायने रखता है। फिर रिजल्ट क्या होगा ये भी अनसर्टेन है। लाख दिमाग लगाइये इक्वेशन साल्व नहीं होगा और कोई इसे बस चुटकी में सॉल्व कर देगा कि आप दंग रह जायेंगे। ये पर्सन टू पर्सन वैरी भी करता है। कोई अपने लव इक्वेशन को 1+1= 2 बनाता है, कोई 1+1= 11 बनाता है तो कोई 9 और 2, 11 हो जाता है। यानि समटाईम इट्स इजी येट अनसॉल्व्ड, समटाईम टफ बट इजी गोइंग, समटाईम इजी लूकिंग बट टफ गोइंग और समटाईम इट्स वेरी- वेरी कॉम्पलीकेटेड।

जब बात तीन शब्द की हो रही है तो कोई मतलब नहीं अगर इसे मौका रहते कहा नहीं। लेकिन ये कहना भी इतना आसान है क्या और कह भी दिया तो क्या गारंटी की प्रोपोजल ऐक्सेप्ट हो जाय। लव हुआ नहीं की दिनभर बेचैनी का आलम, रातों को नींद नहीं, भूख नहीं लगता और फिर भीड़ में भी अकेलापन- ये सारे हेल्दी एक्सपीरियेंस हैं लव के जो सभी ने बॉलीवुड फिल्मों में भी सुना- देखा होगा। किसी ने तीन शब्द कहने के लिये क्यों, कहाँ, कब और कैसे सोचते- सोचते जिन्दगी अफसोस में गुजार दी। तो किसी ने हिम्मत जुटाई और कह दिया फिर वो सब पा लिया जो सपने में भी नहीं सोचा था। इसीलिये तो कहते हैं कि प्यार जितनी बड़ी चीज है उससे बड़ी बात है इज़हार करना।

ये अगर मेरी बात बकवास ज्यादा लग रही हो तो बता दूँ जनाब दावे के साथ की मोहब्बत होती तो सबको है पर मिलती है विरले को ही। तेनजिंग नार्वे की तरह हिमालय पहाड़ पर चढ़ लिजिये, तेंदुलकर की तरह सौ शतक बना लिजिये, बॉलीवुड के हीरो बन जाइये लेकिन मोहब्बत बड़ी अनमोल चीज है जनाब सबको नसीब नहीं होती। सच कहूँ तो दिल यही कहता है कि ऐ खुदा! काश ये वक्त पलट जाये और गुजरा जमाना फिर वापस आ जाय तो इस बार मौका नहीं चुकुँगा। वो सब कुछ कह दूँगा जो अब तक सोचता रहा और कभी कह नहीं पाया। ओ मेरी महबूबा ! एक बार फिर तुम आओ न। ख्यालों और ख्वाबों से उतर कर, हकीकत की जमीन पर। इस बार तुम्हें सजदा करूगाँ, घुटने के बल जमीन पर सर झुकाकर तुम्हारे हाथ पकड़कर जोर से चिल्लाकर कह दूँगा इस बार की- ओ मेरी प्रेमिका ! मै आज भी तुमसे बेपनाह मुहब्बत करता हूँ और ताउम्र करता रहूँगा। अपने आखिरी साँस तक, मरते दम तक भी। आई लव यू
(I-Next; 28 October, 2011)
http://epaper.inextlive.com/15244/Inext-Patna/28.10.11#p=page:n=11:z=2

Wednesday, September 28, 2011

वो दिमाग जो खुशामदी नहीं है, सरकारों के लिए खतरा है!


विचार को लेकर सत्ता प्रतिष्ठान और व्यक्ति के बीच संघर्ष की अपनी ही गाथा है, जो पौराणिक काल से चली आ रही है। जाहिर है कि एक बड़ी क्रांति की नींव विचार की बदौलत ही संभव है। प्राचीन भारतीय कालखंड में मिथकों की परंपरा की बात करें, तो रामायण के संदर्भ में रावण और महाभारत काल में कौरवों की सत्ता के खिलाफ राम और कृष्ण को एक विचार मान सकते हैं। नंद वंश के सत्ता काल में चाणक्य एक विचार बन कर उभरे। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध भी विचार संस्कृति के आदर्श बने, जिसे तत्कालीन राजशाही ने गौर के काबिल भले ही न समझा हो लेकिन वे आज भी प्रासंगिक हैं। गैलीलियो और अरस्तु अपने वक्त में इन्हीं सत्ता प्रतिष्ठान की साजिश के शिकार हुए थे। स्पेन के लोककवि लोर्का ने बुलफाइटर का शोकगीत क्या लिखा, मौत के घाट उतार दिये गये। पंजाब के मशहूर कवि पाश को भले ही मार दिया गया, पर उनकी कविता की ये पंक्ति वैचारिक मौजूदगी का एहसास कराने के लिए काफी है…

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना

सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।

वो राजशाही का दौर था या फिर बर्बर सभ्यताओं का काल, जब सत्ता से अलग विचार बनाने का परिणाम मौत हुआ करती थी। लेकिन लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही संवाद और विवाद को वैचारिकता का स्वाभाविक परिणाम समझा जाने लगा। अंग्रेजों ने भले ही भारत पर शासन किया हो, कई ऐसे उदाहरण हैं, जब वैचारिक विरोध को सहजता से स्वीकार किया है। हिंदी के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर अंग्रेजों की सरकार में रजिस्ट्रार दफ्तर में नौकरी करते थे, पर सरकार की मुखालफत का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। दिनकर जी अंग्रेजों के मुखर विरोधी के रूप में लोकप्रियता के बावजूद नौकरी से न तो निलंबित किये गये और न ही बर्खास्त। आजादी के बाद दिनकर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कई नीतियों के तल्‍ख आलोचक रहे। लेकिन बावजूद इसके नेहरू काल में दो बार कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने। कहां नेहरू ने बदला लिया। 70 के दशक में इमरजेंसी के दौर में लिखने-बोलने वालों को जेल में डालने की हिमाकत इंदिरा गांधी ने की। इस एंटी इमरजेंसी मूवमेंट के मुखर आंदोलनकारी जो आज के बड़े नेता हैं, वैचारिक विरोध पर अपने दल के नेताओं को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकने में गुरेज नहीं करते हैं। ये राजनीतिक संस्कृति लोकतंत्र के लिए निश्चित तौर पर बाधक है।

इतनी बड़ी भूमिका के बाद अब असली चर्चा पर आते हैं। इक्कीसवीं शताब्दी के सूचना क्रांति के दौर में विचार का दायरा भले ही काफी बढ़ गया हो लोकतंत्र में लिखने-पढ़ने वालों पर अंकुश लगाने की खतरनाक प्रवृत्ति अब भी कायम है। ये बात ग्लोबलाइज्ड ऑनलाइन वर्ल्ड में खास हैरानी का कारण बन जाता है, जब खबर दुनिया के प्राचीनतम गणतंत्र कहे जाने वाले राज्य बिहार से हो।

बिहार विधान परिषद में सहायक के पद पर काम करने वाले दो कर्मियों – मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण को फेसबुक पर लिखने के कारण नौकरी से निलंबित कर दिया गया। मुसाफिर ने विभाग से अपने भविष्य निधि खाते की जानकारी मांगी थी, जो सात सालों से अपडेट नहीं था। इसके लिए अधिकारी उन्‍हें ही फटकार लगा रहे थे जबकि ये जिम्मेदारी विभाग की थी। इसी परेशानी में मुसाफिर ने परिषद में कई लोगों के द्वारा नियमों की धज्जियां उड़ाने का हवाला देते हुए ‘दीपक तले अंधेरा’ टिप्पणी की थी। इसी को आधार बना कर निलंबन का नोटिस थमा दिया गया। वहीं अरुण नारायण को मिले निलंबन पत्र में कहा गया है कि ‘प्रेम कुमार मणि की विधान परिषद सदस्यता समाप्त करने के संबंध में सरकार एवं सभापति के विरुद्ध असंवैधानिक टिप्पणी देने के कारण तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाता है।’ अपने कारण निलंबित साहित्यकार मित्र अरुण नारायण को मणि निर्दोष मानते हैं। कहते हैं कि “अरुण नारायण और साथ ही मुसाफिर बैठा का निलंबन शर्मनाक और अलोकतांत्रिक है। मै इसकी निंदा करता हूं और सेवा में फिर से वापस लेने की मांग करता हूं। उन्‍होंने फेसबुक पर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है, जो निजी मित्र संवाद के दायरे में आता है। इसके लिए उन्हें दंडित करना तानाशाही का परिचायक है।” फिलहाल फेसबुक पर अभिव्यक्ति को लेकर नौकरी से निलंबन का देश में ये एक अनूठा मामला बन चुका है।

इन दोनो निलंबित सहायकों की पृष्ठभूमि देखें, तो कई समानताएं हैं, जो इस घटना के तीन-चार महीने पहले निलंबित सैयद जावेद हसन से भी जोड़ती है। विधान परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत जावेद ‘ये पल’ नामक छोटी सी पत्रिका निकालते रहे हैं। इसके अलावा एक उपन्यास और कहानी संग्रह (दोआतशा) लिखकर मशहूर हैं। मुसाफिर बैठा ने हाल ही में एक कविता संग्रह ‘बीमार मानस का गेह’ प्रकाशित किया है और ‘हिंदी की दलित कहानी’ पर पीएचडी की है। तो अरुण बिहार की पत्रकारिता पर शोध के अलावा पत्र-पत्रिकाओं में लिखने के कारण साहित्यकर्मी के रूप में जाने जाते हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रो जाबिर हुसैन जब विधान परिषद के सभापति थे, तो 1999 में हिंदी और उर्दू के तकरीबन 25 ऐसे साहित्यकारों को परिषद में नियुक्त किया जिनके नाम न सिर्फ पीएचडी की डिग्रियां थीं, बल्कि प्रकाशित पुस्तकें भी थीं।

विधान परिषद से इन तीन कर्मियों के निलंबन की कार्रवाई तो महज एक बानगी है। हकीकत ये है कि नीतीश सरकार के आने के बाद विधान परिषद से उन सभी नियुक्त लोगों के सफाये का अभियान शुरू हुआ, जिन्‍हें पूर्व सभापति प्रो जाबिर हुसैन ने नौकरी दी थी। तकरीबन 70 से अधिक लोग पिछले 6 साल में नौकरी से हाथ धो चुके हैं। इनमें आश्चर्यजनक रूप से बड़ी संख्या दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की है। ये भी संयोग ही है कि निलंबित किये गये मुसाफिर, अरुण और जावेद क्रमश: दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। सरकार की इस मंशा के पीछे सवाल कई हैं, जिसका जवाब अंदरखाने में मिलता है। जाबिर साहब ने सभापति बनते ही विधान परिषद के अधिकारियों की समिति बनाकर वहां की नियुक्तियों का अध्ययन करवाया तो पता चला कि 90 फीसदी से ज्यादा पदों पर सवर्ण समुदाय के लोग हैं और संविधान प्रदत्त आरक्षण कानून की जमकर धज्जियां उड़ायी गयी हैं। जाबिर हुसैन ने जब नियुक्तियां की, तो उस वक्त तक के दलित-पिछड़ों के सारे बैक-लॉग भर दिये। आंकड़े बताते हैं कि 1999 में विधान परिषद में जितने लोगों को नौकरी मिली, उनमें 70 दलित, 14 आदिवासी, 56 अति-पिछड़ा और 56 पिछड़ा वर्ग से थे। जाबिर हुसैन बताते हैं कि – “1995 में सभापति बनने के पहले तक विधान परिषद में आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी। ये आश्चर्य की ही बात थी कि जो संस्था एक संवैधानिक कानून बनाती है, वहीं पर इसका अनुपालन नहीं हो रहा था। मेरे द्वारा की गयी सभी नियुक्तियां पारदर्शी और संविधानसम्मत है, जिसे हमने प्रकाशित कर सार्वजनिक भी किया।”

विधान परिषद में नौकरी दिये जाने का इतिहास देखें तो जब जिसकी सरकार रही और जो भी सभापति रहे, उन्होंने अपने लोगों को कौड़ी के भाव नौकरियां बांटकर उपकृत किया। कई बार इन नियुक्तियों पर सवाल भी उठे, विवाद हुआ। मामला विधान परिषद के विशेषाधिकार से जुड़ा होने के कारण सभी सवाल और विवाद ठंडे बस्ते में चले गये। लेकिन इस बार मामले ने तूल पकड़ लिया क्योंकि निलंबन का आधार फेसबुक पर की गयी टिप्पणी को बनाया गया है। पटना से लेकर दिल्ली तक के हर बुद्धिजीवी सुशासन सरकार की इस कार्रवाई से हतप्रभ है। बिहार के जाने-माने साहित्यकार हृषिकेश सुलभ लिखते हैं कि – “यह इस सरकार का शर्मनाक चेहरा है। यह सरकार भी जगन्नाथ मिश्र या लालू प्रसाद की सरकार की तरह ही हिंसक है। यह घटना इस बात को प्रमाणित करती है कि – वो दिमाग जो खुशामद आदतन नहीं करता – सरकारों के लिए खतरा होता है … मुसाफिर और अरुण नारायण हमारे समय के जरूरी युवा रचनात्मक प्रतिभा हैं। हम आपके निलम्बन की निंदा करते हैं।”

बिहार में फेसबुक पर लिखने के कारण नौकरी से निलंबन की इस घटना को हल्के से कोई भले ही ले लेकिन 21वीं शताब्दी के सूचना क्रांति दौर में हुई ये घटना परम आश्चर्य का विषय है। विचार-अभिव्यक्ति पर खतरे से जुड़ी इस पूरी परिस्थिति के निर्माण में मीडिया भी कम दोषी नहीं है। ये सिर्फ ग्लोबलाईजेशन के दौर का मीडिया चरित्र नहीं है, ये मंडल के उत्तरोत्तर काल का मीडिया चरित्र है जो साफ परिलक्षित होता है – इसके वर्गीय और जातिगत संदर्भ भी नजर आते हैं। दिलचस्प ये है कि मीडिया के गढ़े गये शब्द खास तबके को संतुष्ट करने के लिए ज्यादा गढ़े जाते रहे, जो लोकतंत्र में विचार संस्कृति के खिलाफ है। ये प्रतीक शब्द किस तरह से सरकारों के माथे पर चस्‍पां कर दिये जाते हैं और फिर समाज में प्रचलित किये जाते हैं, इनका भी एक विशेष समाजशास्त्रीय संदर्भ है। लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली आरजेडी सरकार घोषित रूप से जंगल राज के रूप में कुख्यात बना दी गयी तो नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू-बीजेपी सरकार को सुशासन सरकार के रूप में देश-दुनिया में विख्यात किया गया। इन सबके बीच मीडिया के पूर्वाग्रह की हद देखिए कि न तो लालू और न ही नीतीश का व्यक्तिगत तौर पर व उनकी सरकारों का निष्पक्ष, पूर्वाग्रह रहित व तथ्यपरक विश्लेषण आजतक हो पाया है। जब फेसबुक पर लिखने के कारण निलंबन जैसी घटना को अंजाम देने का दुस्साहस सुशासन दौर में कोई सत्ता प्रतिष्ठान करता है, तो इससे दक्षिणपंथी संस्कृति की बू आती है।

पहले जावेद और अब मुसाफिर व अरुण का विधान परिषद की नौकरी से निलंबन का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। इसी बहाने कई अंदरूनी परतों के उघड़ने से विधान परिषद का सामाजिक चरित्र भी उजागर हो रहा है। जन सरोकार और जनहित से जुड़े मुद्दों के हाशिये पर चले जाने के खतरे के बीच, समर्थन-विरोध व आरोप-प्रत्यारोप से निकलते सवाल चिंता पैदा करते हैं। क्या विचार संस्कृति सुशासन में बाधक है या फिर सुशासन सुनिश्चित करने के लिए विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बलि दे दी जाएगी। जवाब सबके पास होना जरूरी है क्योंकि “जो तटस्‍थ रहेगा उसका भी दोष लिखेगा इतिहास।”

Thursday, July 21, 2011

सी.ए.ज़ी. की रिपोर्ट और नीतीशजी की चिंता


बिहार के वित्तीय हालात को दर्शाने वाली रिपोर्ट में - नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानि सी.ए.जी.- ने राज्य सरकार को आर्थिक लेखा- जोखा रखने के तौर तरीकों पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। एसी- डीसी बिल का जिन्न अब भी सरकार के गले की हड्डी बनी दिखाई देती है। कॉम्पट्रोलर ऐन्ड एकाउन्टेन्ट जनरल यानि सी.ए.जी. मार्च, 2010 तक खत्म होने वाले वित्तीय वर्ष के लिए जो लेखा- जोखा का रिपोर्ट सौंपा है उसमें राज्य सरकार के लिए कई परेशान करने वाले तथ्य भी हैं। ये रिपोर्ट बिहार विधान मंडल के पटल पर रखा गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार मार्च, 2010 तक 407.97 करोड़ रूपये से जुड़े 1021 मामले अभी तक निपटारे के लिए लंबित है। रिपोर्ट के अनुसार मार्च, 2009 तक 58423 एसी बिल पर 14272 करोड़ रूपये की निकासी हुई परन्तु 2418 करोड़ रूपये के लिए 7435 डीसी बिल ही महालेखाकार को दिये गये। आश्चर्य की बात ये की राज्य सरकार के पारदर्शिता के दावे के बावजूद अक्टूबर, 2007 तक विभिन्न विभागों द्वारा दिये गये 4528 करोड़ रूपये के ऋण अनुदान संबंधी 21147 उपयोगिता प्रमाण पत्र लंबित थे। हालांकि सी.ए.जी. ने राज्य सरकार को राज्य के रिसोर्स से रेवेन्यू खर्च और रेवेन्यू जुटाने के प्रयास की प्रशंसा की है। वहीं सी.ए.जी. ने वेतन, पेंशन और ब्याज अदायगी में कुल बढ़ोत्तरी 55.77 प्रतिशत होने पर खिंचाई भी की है। सी.ए.जी. का कहना है कि 12 वित्त आयोग के निर्देशों के अनुसार गैर योजना मद में कुल खर्च 35 फीसदी से ज्यादा नहीं हो

नीतीश कुमार के काम के जज्बे और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के बावजूद कई तरह की लापरवाही और मिलीभगत के संकेत भी सी.ए.जी. की रिपोर्ट में साफ तौर पर दिखाई देते हैं। बिहार सरकार ने मुख्यमंत्री सेतु योजना के तहत 2007 से 2010 तक आवंटित 522 पुलों में से 404 का निर्माण किया। दरभंगा प्रमण्डल में बिना एकरारनामा किये काम किये जाने के कारण 12.13 करोड़ की हानी हुई। वहीं पुर्णिया के कप्तान पुल की निविदा में विलम्ब होने से 2.00 करोड़ एस्टीमेट में इजाफा हो गया। पुर्णिया के रेलवे ओवरब्रिज निर्माण में कांट्रेक्टर को 43.84 लाख अधिक पेमेंट करने और सुल्तानगंज रेलवे ओवरब्रिज कांट्रेक्टर से 0.80 लाख कम रिकवरी की बात भी सी.ए.जी. ने लापरवाही करार दिया है। वहीं लरझा घाट, समस्तीपुर, रसियारी घाट, दरभंगा में पुल निर्माण कार्य में बिना एस्टीमेंट घटाये कम क्वांटम के डिजाईन को स्वीकार किया जाने के कारण सरकार को 13.21 करोड़ का घाटा बताया गया है। बिहार राज्य विद्युत बोर्ड को विभिन्न मद में लगभग 11.31 करोड़ का घाटा हुआ है। इसमें टैरिफ प्रावधानों का अनुपालन न होने के कारण 5.21 करोड़ और भूमिगत केबल के अनावश्यक क्रय के कारण 3.35 करोड़ खास हैं। 2005 से 2010 के बीच राज्य में कुल सरकारी कंपनियाँ और सांविधिक निगमों की संख्या 65 हैं जिनमें 40 अकार्यशील कंपनियाँ हैं। सी.ए.जी. ने इसे बंद किये जाने की आवश्यकता जताई है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2009-10 के दौरान सिर्फ 3 अकार्यशील कंपनियों ने वेतन, मजदूरी, स्थापना व्यय में 1.48 लाख खर्च किये हैं। अफसोस की बन्द और अकार्यशील कंपनियों के कर्मचारियों और संपत्ति का सरकार कही दूसरे विभाग या मद में समायोजन का प्रयास नहीं कर रही है।

बिहार सरकार का टोटल सैनिटेशन कैन्पेन सफल नहीं हो रहा है। 2005 से 2010 के बीच सिर्फ 24 फीसदी घरों में सैनिटेशन का लक्ष्य हासिल हुआ है जो सरकार के दावे से उलट है। वहीं बिहार के सिर्फ 66 प्रतिशत स्कुलों में ट्वायलेट की व्यवस्था 2005 से 2010 के बीच हो पाई है। सैनिटेशन प्रोजेक्ट के सही ढंग से मोनिटरिंग नहीं किये जाने की बात सी.ए.जी. ने की है। सी.ए.जी. के स्कुलों की व्यवस्था पर भी चिंता जाहिर की है। कई जगहों पर 70 से 400 छात्रों के लिये एक कमरे का स्कुल है। सी.ए.जी. ने निरीक्षण के दौरान एक कमरे वाले ऐसे 139 स्कुलों को पाया। शिक्षकों की भारी कमी की ओर भी इशारा किया गया है। 1985 के पहले खुले प्रोजेक्ट बालिका विद्यालयों की जाँच के दौरान सी.ए.जी. 22 स्कुलों में गई और पाया कि एक स्कुल में 9 शिक्षक हैं तो चार स्कुल में एक भी छात्र नहीं है। आश्चर्य व्यक्त किया कि 141 से 741 छात्रों के लिये एक भी शिक्षक नहीं है। इस पर सी.ए.जी. ने टिप्पणी की है कि स्कुलों का प्रोपर इन्सपेक्शन नहीं किया जाता है। बिहार के जेलों में सुरक्षाकर्मियों, मेडिकल और टेक्निकल स्टाफ के बड़ी संख्या में पद रिक्त हैं। जेलों में विडियों लिंकेज सिस्टम की स्थापना के लिये आवंटित 6.23 करोड़ की राशि का उपयोग नहीं हुआ है। खास बात की 15 जेलों से जुड़े 518 कस्टडियल डेथ के मामले में 28 की मजिस्ट्रेट जाँच की रिपोर्ट एन.एच.आर.सी. को भेजी तक नहीं गई है। सी.ए.जी. ने स्पष्ट लिखा है कि बिहार के जेलों में आई.जी. और डी.एम. उपयुक्त संख्या में इन्सपेक्शन नहीं करते हैं....वहीं इस विभाग में को इंटरनल ऑडिट विंग नहीं है। जल संसाधन विभाग के मामले में सी.ए.जी. की एक टिप्पणी मजेदार है कि भारत सरकार के निर्देशों के गलत इंटरप्रेटेशन से राज्य सरकार को 1.49 करोड़ का घाटा हुआ है। ये मामला कमान्ड एरिया डेवलपमेंट और वाटर मैनेजमेंट प्रोग्राम में केन्द्र और राज्य के बीच 50-50 प्रतिशत की राशि शेयर करनी है साथ ही लाभान्वित किसानों से 10 फीसदी राशि की वसूली की बात थी। वहीं उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के वन एवं पर्यावरण विभाग पर भी गंभीर टिप्पणी है। सी.ए.जी. कहती है कि राज्य ने अभी तक अपनी कोई वन नीति जाहिर नहीं की है वहीं 22 में से 20 फॉरेस्ट डिविजन बिना किसी वर्किंग प्लान के चल रहे हैं। वहीं 2010 में सहरसा फोरेस्ट डिविजन में 13.96 लाख के फ्रॉड पेमेंट की बात भी की गई है जो बिना वृक्षारोपण के किया गया। इस तरह सी.ए.जी. की रिपोर्ट में सभी विभागों में गलत निकासी, मिलीभगत से राशि गबन करने, फर्जी काम कराने के मामले भरे परे हैं। यानि नितीश कुमार के कार्यप्रणाली और संस्कृति पर ही सी.ए.जी. ने सवाल उठा दिया है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के तेवर प्रशासनिक चुस्ती को लेकर काफी सख्त है और भ्रष्टाचार के मामले पर तो बिहार सरकार ने राज्य भर में मुहिम छेड़ रखा है। पर लगता है कि मुख्यमंत्री वाकई लालफीताशाही के शिकार हो गये हैं। जिला और प्रखंड स्तर के प्रशासनिक पदाधिकारियों और कर्मचारियों में मुख्यमंत्री जी की कवायद और तेवर का असर बहुत नहीं दिखता है। इस पूरे रिपोर्ट में नीतीश सरकार के काम के जज्बे के बीच कई तरह की लापरवाही और मिलीभगत के संकेत भी साफ तौर पर दिखाई देते हैं। इससे दलालों, ठेकेदारों और अधिकारियों के बीच गठजोड़ की बात भी स्पष्ट जाहिर होती है जो नीतीश सरकार के लिये बदनुमा दाग की तरह है। देखना होगा की राज्य सरकार अपने लेखा- जोखा में पारदर्शिता कैसे ला पाती है। लेकिन इस पूरे रिपोर्ट ने बिहार में विपक्ष को एक मुद्दा दे दिया है तो राज्य की जनता भी सब देख- सुन और जान रही है ऐसे में सी.ए.जी. ने जो सवाल उठाये हैं वो सिर्फ कागजी चिटठा भर नहीं है पर राज्य की आर्थिक हालात और जमीनी हकीकत का काला चिटठा भी है / जाहिर है की सी.ए.ज़ी. ने राज्य के आर्थिक हालत की एक बानगी यानि तस्वीर भर पेश की है लेकिन नीतीश कुमार के लिए ये राजनीतिक चिंता पैदा करने वाली बात है।

Monday, January 31, 2011

३० सितम्बर का दिन और अयोध्या फैसले के बाद

30 सितम्बर को अयोध्या फैसले के दिन जो सन्नाटा पसरा था वो जाहिर है की लोगों के जेहन में एक अज्ञात भय की आशंका के कारण थी l बड़ा सवाल था की फैसला क्या होगा और आवाम यानी हिन्दू- मुसलमान इसे किस रूप में स्वीकार करेंगे l रामजन्म भूमि आन्दोलन, लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा, बाबरी मस्जिद विध्वंस उसके बाद देश में उत्पन्न हालात और फिर उसके करीब एक दशक बाद गुजरात के दंगों की तस्वीरें हम में से अनेकों लोगों की आँखों के आगे तैरने लगे थे l कॉमनवेल्थ गेम्स और बिहार विधान सभा चुनाव के मद्देनज़र पुलिस, प्रशासन, नेता और जनता सब सशंकित थे l किसी भी स्थिति से निपटने के लिए पुलिस बल देश के सभी संवेदनशील और ख़ास जगहों पर तैनात थे l बसें, ट्रेन, हवाई यातायात पर भी इसका खासा असर देखने को मिला l ये सारी परिस्थितियाँ कुल मिलाकर यही इंगित कर रहीं थी की जैसे इस सेक्युलर देश के आवाम के जज्बात की अग्नि परीक्षा ली जा रही हो l शुक्र है की फैसले के बाद अज्ञात भय के अंदेशे से पसरा सन्नाटा फिर से चहल -पहल में तब्दील हो गयी l करीब दो महीने पहले से इस अवसर के लिए तैयार मिडिया ने भी राहत की सांस ली l हाँ ये बात और है की फैसले के बाद मिडिया सेंटर और अन्य कई जगहों पर पत्रकारों को गले मिलते, बधाई देते और ख़ुशी मानते देखा गया l ये बात यहाँ लिखना इसलिए भी जरूरी है की मिडिया समाज एक अलग द्वीप नहीं बल्कि इसी सामाजिक- राजनीतिक परिवेश का एक अंग है जो इस फैसले के बाद मिडिया समूह की प्रतिक्रिया से साफ़ झलक रहा था l अधिकतर टी.वी. चैनलों ने जो ब्रेकिंग न्यूज़ दिखाए उसमें तीन खबर ख़ास थी l पहला, विवादित स्थल रामजन्मभूमि; दूसरा, रामलला वही विराजमान रहेंगे और तीसरा, सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज l इस पूरे संवेदनशील मामले के प्रति देश के कई महत्ववपूर्ण टी.वी. समूह के पत्रकारों की भावना का साफ़ पता लगता है l

जैसे ही फैसला आया वकील के रूप में भाजपा के राष्ट्रीय नेता रविशंकर प्रसाद ने बाहर आकर मिडिया को फैसले का मजमून तो बताया ही झट से अपना राजनीतिक पैंतरा बदलते हुए कहा की इस मामले में न तो एक पक्ष के वकील के रूप में और न ही भाजपा के नेता के रूप में पर देश के एक आम नागरिक के रूप में वो देश के मुस्लिम भाइयों से अपील करते है की अब जबकि कोर्ट ने भी मान लिया है की वो स्थान राम जन्म भूमि है और रामलला की मूर्ति वहीँ विराजमान रहेगी तो राममंदिर बनाने में सहयोग करें l तो उधर दिल्ली में आर.एस.एस.प्रमुख मोहन भागवत ने कहा की कोर्ट के फैसले के बाद राममंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो गया है पर एक तिहाई जमीन मुसलमानों को दिए जाने के मामले पर संतों की उच्चाधिकार समिति फैसला करेगी l भागवत ने मंदिर को राष्ट्रीय मूल्यों का प्रतीक बताते हुए राममंदिर के निर्माण में कटुता भुलाकर जुट जाने का आह्वान किया l प्रवीण तोगड़िया ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा की देश के सौ करोड़ हिंदुओं की श्रद्धा का सम्मान हुआ है। वहीँ नरेंद्र मोदी ने इसे हार- जीत का विषय न बनाने की बात करते हुए खुशी जाहिर किया की इस जजमेंट से भव्य राम मंदिर बनाने का रास्ता प्रशस्त हुआ है। एक हिंदी साइट पर विश्व हिंदू परिषद के एक अन्य नेता गिरिराज किशोर ने कहा है कि अब मुसलमानों को गुड-विल का परिचय देते हुए मथुरा और काशी को भी हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। अब भाजपा भले ही रविशंकर के बयान के बाद संयम बरत रही हो रही सही कसर उसके सहयोगी हिंदूवादी संगठनों के नेता ने पूरा कर दिया l सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी की इस फैसले पर तल्खी जरूर झलकी, बावजूद इसका स्वागत किया और सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कही l

इस पूरे पृष्टभूमि में सबने कहा तो यही की इस फैसले को हार और जीत की भावना से नहीं देखा जाए पर चेहरे के भाव सच बयान कर गए l आर.एस.एस. और भाजपा के नेताओ के चेहरे की ख़ुशी साफ़ झलक रही थी l वे कह रहे थे की ये हार जीत का सवाल नहीं है पर जीत का भाव लिए खुल कर न सही अंदरूनी तौर पर जश्न तो जरूर मना रहे थे l उन्हें अयोध्या की विवादित जमीन मुसलमानों के साथ बाँटने का दुःख तो था पर ख़ुशी इस बात की थी की कोर्ट ने एक तौर पर उस विवादित स्थल को राम जन्मभूमि मानते हुए रामलला की मूर्ति यथावत बने रहने का आदेश दिया था l खैर हिन्दुत्ववादियों ने संयम तो रखा पर उनके जबान से निकले शब्द कहीं न कहीं दुसरे पक्ष को चुभ रहे थे l दाद देनी होगी उन तमाम मुसलमानों को इस बड़े संवेदनशील मामले पर स्तब्धता और हैरानी जाहिर किया पर कोई हिंसक या उग्र प्रतिक्रिया नहीं हुई और इसकी जितनी शाबाशी हिंदुस्तान के तमाम लोगों को दिया जाय वो कम है l

सवाल ये भी है की भाजपा की इतनी सधी हुयी प्रतिक्रिया के पीछे क्या कारण था l साफ़ है की देश की वर्तमान स्थिति में भाजपा को एक बड़े मुद्दे की तलाश जरूर है जो उसे कांग्रेस के मुकाबले खड़ा कर सके l भाजपा की एक असफलता तो वाजपेयी और आडवाणी के बाद के काल में एक राष्ट्रीय छवि का नेता ढूढ़ पाने की है जो पार्टी को कांग्रेस के युवराज और भावी प्रधानमंत्री राहुल गाँधी के मुकाबले खड़ा कर नेतृत्व कर सके l भाजपा की दूसरी असफलता महंगाई, परमाणु बिल सहित अन्य तमाम मुद्दों पर सांसद के भीतर और बाहर कांग्रेस को घेर पाने की है, यूँ कहें की ये भाजपा की एक सफल विपक्ष के तौर पर बड़ी असफलता है l भाजपा के नेता इन दोनों मामलों में असफलता की बात सुनते ही महंगाई के खिलाफ पिछले दिनों हुए राष्ट्रीय बंद का हवाला देते हैं पर ये भूल जाते हैं की उस बंद की सफलता अकेले भाजपा के बूते के बाहर की बात थी क्योंकि वामदल, समाजवादी दल, आन्ध्र की टी.डी.पी., अन्नाद्रमुक और देश भर के तमाम सामाजिक- राजनीतिक संगठन सभी इसमें शामिल थे l

जाहिर है की ऐसी हालात में बिहार के चुनाव में भाजपा का जे.डी.(यू.) से गठबंधन उसकी चुप्पी का एक बड़ा कारण है l बी.जे.पी. के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते है की फ़र्ज़ कीजिये की ये चुनाव न होता या फिर चुनावी गठबंधन जे.डी.(यू.) से होता तो इतने बड़े मुद्दे और अवसर को कोई ऐसे ही खाली हाथ क्यों जाने देता l वाकई इस लिहाज से भाजपा, वी.एच.पी., आर.एस.एस., बजरंग दल और तमाम हिंदूवादी संगठनों की चुप्पी कोई छोटी- मोटी बात नहीं बल्कि बड़े मायने हैl केंद्र में सत्ता से बाहर भाजपा को पता है की 2014 तक उसके लिए राष्ट्रीय सत्ता में आने का कोई जगह नहीं है और फिर उस चुनाव में भी राहुल नाम की युवा आँधी से जूझना है जिसके लिए पार्टी अभी अपना एक नेता ढूढ़ रही है जिसके पीछे सभी एकजुट हो कर मैदान मार सकें l इस कारण पार्टी राज्यों में सत्ता पर जैसे तैसे सब कुछ सहते हुए काबिज़ होने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती है l अन्यथा भाजपा के लिए झारखण्ड में सरकार बनाना एक गर्व का विषय न होता l पार्टी ने पिछले दिनों नीतीश कुमार के आगे चारों घुटने टेक दिए है l नरेन्द्र मोदी की तस्वीर के मामले में फजीहत की ये पराकाष्ठा की राष्ट्रीय बैठक में पटना आये भाजपा नेताओ को नीतीश कुमार ने भोज का आमंत्रण दे कर ठेंगा दिखा दिया और पूरी पार्टी मुँह छुपाते फिरती रही l बाढ़ राहत का पांच करोड़ रूपया लौटाया l भाजपा को इस शर्त पर राज़ी किया की पार्टी के उग्र हिंदूवादी चेहरे नरेन्द्र मोदी और वरुण गाँधी को बिहार प्रचार में नहीं आने दिया जायेगा l अब इतना कुछ सह कर कैसे भाजपा बिहार में जे.डी.(यू.)से अलग राजनीति की सोच सकती है, कम से कम झारखण्ड के बाद एक और राज्य में सरकार में वापसी का दावा जो अभी बना हुआ है और फिर बिहार में पार्टी का अकेले वजूद नीतीश कुमार के बाहर ढूढना संभव नहीं दिखता है l

बिहार में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और इस फैसले को लेकर सभी दल काफी सशंकित थे l बताया जाता है की सभी दलों ने अपने नेताओं को किसी भी प्रकार की बयानबाजी से बचने की हिदायत दे रखी थी l ये बातें उन दलों के लिए कुछ ज्यादा लागू की गई थी जो वैचारिक रूप से दो विपरीत ध्रुव पर होते हुए भी एक गठबंधन में चुनाव लड़ने जा रही थीं यानी भाजपा और जे.डी.(यू.) के लिए ये ज्यादा जरूरी था l धर्मनिरपेक्षता के पंद्रह वर्षों तक झंडा बुलंद कर चुके लालू यादव के लिए तो ये अवसर की बात थी क्योंकि अपने माय समीकरण के ध्वस्त होने और कांग्रेस की ओर टकटकी लगाये रहने के बावजूद दरकिनार कर दिए जाने के बाद शायद इस फैसले से हुए कुछ भी वोट शिफ्टिंग का लाभ आर.जे.डी. को हो सकता है l पर लालू यादव को पता है की पिछले पंद्रह वर्षो के विकास विरोधी नीति का भूत उनके पीछे पड़ा है और नीतीश कुमार भाजपा के साथ होते हुए भी उनपर 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में भी भारी पड़े l ऐसे में कांग्रेस पहली बार अपने बूते और राहुल- सोनिया करिश्में के दम पर बिहार विधान सभा चुनाव मैदान में उतरने जा रही है तो उसका इस पूरे मामले पर सतर्कता लाजमी था l इस फैसले के कुछ दिनों पहले से नेताओं ने चुप्पी साध ली थी l फैसले के आने के पहले गृहमंत्री चिदंबरम ने राष्ट्र से शांति की अपील की थी तो फैसले के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साफ़ किया की इस फैसले को गहराई से देखा जाना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट में यह मामला जाने तक यथास्थिति बनाये रखी जाएगी l इस अवसर पर उन्होंने शांति व भाईचारा बनाये रखने और विघटनकारी तत्वों से सावधान रहने को भी कहा l इस पूरी कवायद से समझा जा सकता है की इस फैसले का सन्दर्भ कितना महत्वपूर्ण और गंभीर था l नीतीश कुमार ने कहा की इस फैसले को न्यायिक प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए और कोई भी पार्टी हो उसे निर्णय को राजनीतिक एजेंडा नहीं बनाना चाहिए l नीतीश कुमार के इस बयान में जहाँ अपनी सहयोगी भाजपा के लिए एक अप्रत्यक्ष चेतावनी थी वहीँ आर.जे.डी. और कांग्रेस के लिए सन्देश था l नीतीश कुमार को पता है की अगर किसी भी तरह का ध्रुवीकरण होगा तो उसमे उन्हें ही खामियाजा भुगतना पड़ेगा l लालू यादव ने काफी सोच समझ कर कहा की इस फैसले को पूरा पढने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देंगे l उन्होंने इस फैसले का बेजा इस्तेमाल करने वाले और सामाजिक सदभाव बिगाड़ने वाली पार्टियों पर नज़र रखने की अपील लोगों से की जाहिर है उनका इशारा हिन्दुवादी संगठनों की ओर था l किसी भी दल के नेता इस बारे में खुलकर बात नहीं करते है की इस फैसले का चुनाव पर क्या असर पड़ेगा l लेकिन ये फैसला अब जिस तरह से लोगों के बहस के एक मुख्य बिन्दु बन गया है और ख़ास कर मुस्लिम समुदाय के लिए तो ऐसा निश्चित तौर पर लगता है की इसके बिहार में चुनावी प्रभाव पड़ेंगे l

कोर्ट ने फैसले में मुसलामानों को जमीन का हिस्सेदार बनाया है तो हिन्दू पक्षकार की भौहें तनी है और रामजन्मभूमि न्यास और हिन्दू महासभा दोनों सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में है l सुन्नी वक्फ बोर्ड और उससे जुड़े लोगो ने भी इस फैसले का स्वागत किया क्योंकि अब इस मामले में आगे बढ़ने की एक गुंजाईश भी बनी है l पर उनका ऐतराज कोर्ट के इस बात से है की क़ानून का फैसला एविडेंस यानी तथ्य आधारित होना चाहिए न की आस्था, मान्यता और विश्वास के आधार पर l तो जाहिर है सुन्नी वक्फ बोर्ड भी सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहा है l कांग्रेस के एक मुस्लिम नेता नाम ने छापने की शर्त पर कहते है की कोर्ट के फैसले का हम सब स्वागत भले ही करें मामला सुप्रीम कोर्ट में जाना तय है l पूरा फैसला कुल 15,000 पन्नो का है और इसके अध्ययन में वक्त लगेगा पर जो भी सार जानने को मिला है उससे लगता है की फैसला हिन्दू समुदाय के पक्ष में हुआ है l वे याद दिलाते है की भाजपा के नेताओ ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक़्त देश की संसद और राष्ट्रीय एकता परिषद् को विश्वास दिलाया था और जब मस्जिद तोड़ दिया तो उस वक़्त ये बात हिंदूवादी नेताओ के तरफ से सुनने को मिले थे की आस्था के सवाल पर हम संविधान और क़ानून को बड़ा नहीं मानते हैं l

पिछले दो दशकों में देश की राजनीति एक लम्बी दूरी तय कर चुकी है अब न तो पंडितों की हुंकार और न ही मौलानाओ के फतवे लोगों को असर करते हैं l देश में शांति और सदभाव कायम रहा तो ये किसी सरकार की सतर्कता भले हो बजाय इसके आवाम की अपनी जरुरत से प्रेरित थी l लोग वर्तमान में भले ही जीतें हो पर इतिहास से सीख भी रहे है और जब जख्म अब भरने को आये है तो कोई कुरेदना नहीं चाहता है l बिहार में चुनाव है तो इस फैसले का असर निश्चित होगा l लोगों के सामने बिहार के विकास का सवाल है तो सामाजिक और वैचारिक वजूद बचाने का सवाल भी है l हक- हकूक दिलाने के नाम सपने दिखाकर वोट लेने वालों को लोग ठेंगा भी दिखने को तैयार है l पिछले बीस सालों में बिहार के लोगो ने क्षेत्रीय पार्टियों को खासा तरजीह दिया है जिसका परिणाम था की कांग्रेस पिछले विधान सभा चुनावों में आर.जे.डी. की तो वहीँ बी.जे.पी. अब भी जे.डी.(यू.) की जूनियर पार्टनर बनी हुई है l कांग्रेस इस बार अकेले बूते सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है l बौद्धिक आवरण में आमतौर पर किसी के लिए चुनावी गोलबंदी का असर देखना या स्वीकार करना मुश्किल भले हो पर हकीकत ये है की भूमि सुधार मसले पर सरकार से नाराज़ चल रहा सवर्णों का एक हिंदूवादी तबका भाजपा गठबंधन के कारण नीतीश कुमार की ओर मुखातिब हो सकता है तो मुसलमान आर.जे.डी. या कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद हो सकते है l पर कोई भी अपने पक्ष में किसी ख़ास मत को पाले में लेने का दावा नहीं कर सकता है l फिलहाल फैसले का मजमून सामने आया है l पूरे फैसले के अध्ययन के बाद कई महत्वपूर्ण बातें सामने आएँगी, फिर बहस और सवाल-जबाब भी होंगे और जाहिर है बिहार का चुनावी तापमान तब तक कुछ और गरम हो चुका होगा l

(नोट- 'इंडिया न्यूज़' साप्ताहिक के अक्तूबर, २०१० अंक से साभार)