!!!क्या नीतीश कुमार मगध सम्राट बनेंगे !!!
दो भाईयों के बीच संपत्ति विवाद हुआ। आपस में जमीन- जायदाद का बँटवारा कर लिया। एक ने माँ को रख लिया और दूसरे ने पिता को रख लिया। जब सब कुछ बँट गया तो एक दूधारू गाय बची। एक भाई बेचने के पक्ष में तो दूसरा रखने के पक्ष में था। फिर दोनों के बीच इतनी तनातनी थी कि अगर एक उस गाय को रख भी ले तो दूसरा मुआवजा लेकर शांत हो जाने को तैयार नहीं था। जब सभी हार गये तो दोनों बेवकूफ जिद्दी भाईयों ने उस गाय का बँटवारा अपना दिमाग लगाकर कर लिया। एक भाई गाय के पेट के उपरी भाग का मालिक बन बैठा सोचा कि गाय तो मुँह से ही खाती है और उसके गले की रस्सी हाथ में रहेगी। दूसरा भाई पेट के नीचे के भाग का मालिक बन गया सोचा की दूध निकालेंगे तो खायेंगे और कमाई भी होगी। लेकिन दोनों भाई की मति ऐसी मारी गयी थी कि सहमति और सामुहिक लाभ की भावना जैसी कोई बात उनके बीच नहीं थी। जब एक भाई गाय को खाना खिलाने की कोशिश करता तो दूसरा उसकी पूँछ पकड़ कर हड़का देता और जब दूसरा दुध निकालने की कोशिश करता तो पहला गाय के गले की रस्सी खीचने लगता। कुछ मिलाकर स्थिति ये बनी की गाय ने दूध देना बंद कर दिया और एक दिन उसकी जान चली गयी। फिर लम्बे समय तक दोनों भाई खुद को बड़ा दिखाने और एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में परेशानियों से घिरते चले गये।
ये तो एक महज कहानी भर है पर इसकी चर्चा का संदर्भ इनदिनों देश में छोटे राज्यों को लेकर चल रहे बहस से भी जुड़ा है। भारत की विडंबना ये है कि एक ही देश में जितनी विभिन्नता के तत्व मौजूद है उतना शायद ही किसी और देश में होगी। भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भाषाई, जाति- धर्म, संप्रदाय – इन सबके आधार पर लोगों का समूह, आस्था व मान्यता तय है जो बड़े वैचारिक बहस का हिस्सा है। स्पष्ट तौर पर कहे तो रियासतों में बँटे इस देश का एकीकरण भले ही हो गया लेकिन उपराष्ट्रीय भावनायें भारत में अब भी मौजूद है। कई बार ये भावनायें जब उफान मारती है तो नये राज्य की माँग जोर पकड़ने लगती है। इसका एक बड़ा संदर्भ राज्यों के भीतर कई इलाकों में मौजूद क्षेत्रीय विषमता और असंतोष से भी है। 11 साल पहले देश में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन हुआ । इस विभाजन की खास बात ये रही की इन इलाकों की क्षेत्रीय विषमता को लेकर लम्बे समय से चले आ रहे बहस और जन आंदोलन के बाद इन राज्यों का बनाने का निर्णय लिया गया। इसी तरह तेलंगाना राज्य का सपना भी अगर पूरा होता है तो ये जनआंदोलन के दबाव के कारण ही संभव दिखायी देता है।
हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने बहुमत के बूते राज्य के बँटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में सिर्फ 11 मिनट के भीतर पास कर दिया। ये जनता की आकांक्षा को फलीभूत करने की कम और भावी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक पासा फेंकने की कवायद ज्यादा है। उत्तर प्रदेश को चार भागों में बाँटने की मायावती के इस बुलंद हौसले वाले निर्णय की तुलना लालू यादव के सत्ता में काबिज रहने के लिये बिहार बँटवारे के फैसले से की जा सकती है। झारखंड के वजूद की माँग का ऐतिहासिक संदर्भ में महत्व व जरूरत के बावजूद लालू यादव ने कभी भी इसे तवज्जो नहीं दी, खासकर जबतक वे मजबूत बने रहे। लेकिन जैसे ही उनका सामाजिक समीकरण कमजोर पड़ता दिखाई पड़ा, अपनी लाश पर झारखंड बनने की दुहाई देने वाले लालूजी ने पलभर में सहमति दे डाली। भले ही राज्यों का वजूद में आना किसी दल के लिये राजनीतिक पासा हो सकता है लेकिन राज्य के गठन- पुनर्गठन का सवाल क्षेत्रीय- भाषाई- सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा है।
छोटे राज्यों के समर्थन में एक बड़ी दलील क्षेत्रीय आर्थिक विषमता को लेकर है तो दूसरा प्रशासनिक नियंत्रण और शासन के सफल संचालन को लेकर भी है। इन दलीलों पर 11 वर्ष पहले नक्शे पर उभरे राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल का आंकलन करें तो थोड़ी खुशी और बहुत सारे गम जैसे भावना मन में उभरती है। उत्तरांचल ने पर्यटन, बिजली तथा अन्य क्षेत्रों में प्रगति की है जो यहां की पुरानी ऐतिहासिक व भौगोलिक पृष्ठभूमि से भी जुड़ा है। वहीं छत्तीसगढ़ और झारखंड नक्सल गतिविधियों के कारण हाल के वर्षों में ज्यादा चर्चित हुआ। छत्तीसगढ़ में कुछ प्रगति की बेहतरीन कोशिशें हुई है लेकिन झारखंड की वर्त्तमान त्रासदी अफसोस पैदा करती है। इसके कुल 24 जिलों में से कहीं कम-कहीं ज्यादा 22 जिले नक्सल प्रभावित है। इसकी आर्थिक राजधानी जमशेदपुर की विडंबना देखिये तो स्टील सिटी के 5 किलोमीटर के रेडियस में किसी भी ओर जायें तो आमलोगों के चेहरे पर गरीबी का आलम देखा और महसूस किया जा सकता है। छोटानागपुर और संथाल परगना के इलाके में टीनेन्सी एक्ट की धज्जियाँ उड़ाने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं। बड़ी कंपनियों के लिये जमीन का अधिग्रहण हो रहा है जिसमें जनता की आर्थिक भागीदारी और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतों को ताक पर रख दिया गया। राजनीतिक उथल-पुथल और प्रशासनिक विफलता ने इस छोटे से राज्य के भीतर क्षेत्रीय असंतोष पैदा कर दिया है और यहाँ से भी नये राज्य की माँग की सुगबुगाहट होने लगी है।
बिहार की बात करें तो यहाँ मिथिलांचल, मगध, अंगप्रदेश व भोजपुर राज्य की माँग यदा- कदा होती रही है। उत्तर प्रदेश को चार भागों- पूर्वांचल, अवध प्रदेश, बुन्देलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश या हरित प्रदेश में विभाजित किये जाने पर राजनीतिक बवाल शुरू है। इधर नीतीश कुमार भी छोटे राज्यों की वकालत कर चुके हैं लेकिन उनकी ये माँग भी गौर करने लायक है कि इन छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुये किसी भी राज्य की विधानसभा में कम से कम 100 सीटों सुनिश्चित किया जाये। उड़ीसा, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भी असंतोष की सुगबुगाहट होने लगी है जो खबरों की सुर्खियों से बाहर है। पश्चिम बंगाल में चौबीस परगना, उड़ीसा के तेलुगु भाषी इलाके, महाराष्ट्र में विदर्भ ये सारे इलाके राजनीतिक असंतोष जाहिर कर रहे हैं। वैसे राज्य विभाजन को लेकर सबसे सुलगता सवाल तेलंगाना की माँग तो केन्द्र के लिये एक चुनौती से कम नहीं है। इसी बीच छोटे राज्यों में भ्रष्टाचार का उदाहरण देखना हो तो उत्तर-पूर्व राज्यों को देखा जा सकता है। एक और दो सासंदो वाले राज्य होने के बावजूद वहाँ नगा, कुकी और अन्य जातीय गुटों के बीच मतभेद और संघर्ष की खबरे हकीकत बताने के लिये काफी है। यहाँ तक की जम्मू और कश्मीर को तीन भागों – लद्दाख, जम्मू और कश्मीर घाटी – में विभाजन के लिये राजनीतिक सवाल वहाँ के नेता उठा चुके हैं।
अब राज्य बने नहीं की हकीकत में न सही राजनीतिक लतीफेबाजी में मुख्यमंत्री भी बनाये जाने लगे हैं। हुआ यूँ कि एक सज्जन ट्रेन में बैठे बात कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद चार नये बने राज्यों – अवध प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड व पश्चिम उत्तर प्रदेश की सत्ता क्रमश: मुलायम सिंह, अमर सिंह, मायावती व अजीत सिंह को मिल जायगी । तो वहीं बैठे एक बिहारी बन्धु ने कहा कि अच्छा है बिहार को भी चार भाग में बाँट दिया जाय तो लालू यादव, रामविलास पासवान, जगन्नाथ मिश्र भी मुख्यमंत्री बन जायेंगे और नीतीश कुमार मगध के सम्राट हो जायेंगे। वहीं बैठे एक कांग्रेसी सज्जन ने तुनकते हुये विरोध किया कि वाह भाई वाह। उत्तर प्रदेश- बिहार को बाँटकर 8 मुख्यमंत्री बने और हमारे हाथ कुछ भी नहीं। सब आपही लोग ले लेंगे तो कांग्रेस क्या बजायेगी झुनझुना।
लतीफेबाजी और राजनीति की लिफाफेबाजी के बीच छोटे राज्यों का मुद्दा एक गंभीर सवाल है जो किसी एक क्षेत्र का नहीं बल्कि राष्ट्रहित से जुड़ा मसला है जिसपर विचार और बहस अविलंब जरूरी है।। सवाल आम जनता के लिये क्षेत्र, भाषा, संस्कृति की अस्मिता का है या फिर आर्थिक विषमता से उपजे असंतोष का है। इन्ही के बीच नेताओं के अपने स्वार्थ में राजनीतिक गोटी फिट करने का भी है। लेकिन एक बड़ा सवाल भारत के अपने एक संगठित राष्ट्र के रूप वजूद का भी है क्योंकि देश सिर्फ सरहद से नहीं इसमें रहने वाली आवाम के जज़्बे, जोश और भावनाओं से बनता है। राज्य विभाजन के लिये वैसे कमीशन पहले भी बने लेकिन देशभर से अलग राज्य की उठती माँग को देखते हुये और जनभावनाओं का ख्याल रखते हुये नये राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना एक बड़ी तात्कालिक जरूरत बन चुकी है।
('मैग्निफिसेन्ट न्यूज' के दिसंबर अंक में प्रकाशित।)